Saturday, 25 August 2018

लोकतंत्र के प्रहरी


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के महान नेताओं में शुमार हैं। उनके निधन पर एक जननेता के प्रति जो सम्मान प्रकट करना चाहिए उससे बढ़कर देश ने उन्हें नमन किया। क्या पक्ष, क्या विपक्ष उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और शीर्ष राजनीतिक कद के सभी कायल हैं। संवेदनशील कवि, प्रखर पत्रकार, बेदाग सियासी चेहरा जैसी तमाम खूबियों वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अटलजी के योगदान को सभी ने अपने-अपने तरीके से स्मरण किया। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी पर अटलजी कितने खरे? इस पर विचार ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए। क्योंकि मौजूदा भाजपा सरकार का चाल-चरित्र अटलजी वाला तो कतई नहीं कहा जा सकता। भाजपा अपने पितृ पुरुष के लोकतान्त्रिक आचरण पर कितना चल पा रही यह बहस का विषय बना हुआ है। यह जरूरी है कि लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अटलजी का विचारण करते हुए उनके महत्वपूर्ण भाषणों के दो लफ्जों पर फोकस करना होगा। एक संख्याबल के सामने हमेशा शीष झुकाना और दूसरा बहुदलीय व्यवस्था का सम्मान। 13 दिन और 13 महीने की सरकार छोड़ते समय संसद में दिए ऐतिहासिक भाषण में हताशा नहीं बल्कि दोनों के प्रति सम्मान और इन्हीं के बल पर फिर जीतकर आऊंगा... उम्मीद का गहरा भाव केंद्रित रहा। वास्तव में ये दोनों पहलू लोकतंत्रीय व्यवस्था की रीढ़ हैं। इन्हें निकाल दिया जाए तो अमेरिका या दूसरे कई देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था के ड्राबैक सामने जा जाते हैं। वहां दो दलीय व्यवस्था है। ऐसे में वहां की जनता के पास दो ही विकल्प हैं। ये दल या ओ दल। कहने का आशय यह है कि लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उसके नागरिकों में निहीत होनी चाहिए, वह गायब है।
इस मामले में अटलजी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के नायाब नेता साबित हुए, जिन्होंने अपनी राजनीतिक चेतना के मूल में संख्याबल और बहुदलीय व्यवस्था का न केवल दिल से सम्मान किया बल्कि इनसे ही राजनीतिक समन्वय का मंत्र भी दिया। आजादी के बाद पहले ऐसे चमत्कारिक नेतृत्व का ओहदा पाने में कामयाब हुए जिसमें 24 दलों के भानुमति के कुनबे वाली सरकार को पूरे पांच साल चालने का करिश्मा कर दिखाया। लोकतंत्र भारतीयता के मूल में है। इस देश की रक्तवाहिनियों में प्राचीन काल से संचरित है।

अगली कड़ी में जारी...

Friday, 20 July 2018

मुक्तिबोध : जन्मशती, समीक्षा और संस्मरण

गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म- 13 नवम्बर 1917
निधन- 11 सितम्बर 1964
जन्म स्थान- श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कुछ प्रमुख कृतियाँ
चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी:एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियाँ) एवं भारत:इतिहास और संस्कृति।
मुक्तिबोध का विद्यार्थी होने के नाते उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की समीक्षा करने वालों पर मेरी हमेशा जिज्ञासादृष्टि रही है। वैसे भी मुक्तिबोध को पूरी गहराई और शिद्दत से स्मरण करने का मौका भी है, दस्तूर भी। यह उनकी जन्मशती का खास अवसर जो है। साहित्य में उनके अतुलनीय योगदान को देशभर में याद किया गया। रायपुर से लेकर दिल्ली तक यह सिलसिला चला। जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि जीते-जी जिस कवि को नाम और मुकाम हासिल नहीं हुआ, मरणोपंरात हिंदी ही नहीं ऊर्दू साहित्य की अध्येता जमात तक उनकी अनूठी रचनाप्रक्रिया, फंतासी, कथ्य, शैली पर व्याख्यानमाला कर रही है। बड़ी तादाद में युवा पीढ़ी भी उनके अवदान पर चर्चा में शामिल हो रही है। यह कोई मामूली बात नहीं है। पीढिय़ां बदलते ही अक्सर साहित्यकार भुला दिए जाते हैं, हालांकि मुझे मलाल है, इस दौरान किसी भी बड़े आयोजन में शरीक होने का सौभाग्य नहीं मिला। उनकी स्मृति में साहित्यिक पत्रिकाओं में खूब लिखा गया। सोशल मीडिया पर भी उनके शब्दों का अनमोल खजाना चर्चा में रहा। कुछ महत्वपूर्ण आयोजन के वीडियो अंश मेरे हाथ लगे। ये मेरे लिए किसी नायाब तोहफे से कम नहीं। इनमें मुक्बिोध के परिचित रचनाकार, जिन्होंने उनके साथ लंबा वक्त बिताया और वे भी, जो उन्हें व्यक्गित रूप से नहीं जानते थे, रचनाओं के माध्यम से मुक्तिबोध के व्यक्तित्व और कृतित्व को गहरी समझ के साथ इन विद्वानों ने उनके साहित्य की समीक्षा की और संस्मरण व्याख्यान भी दिए। मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से लेकर रायपुर तक तमाम जगह पर आयोजित उनके जन्मशती समारोह में घूम-घूमकर मुक्तिबोध के जीवन के हर पहलू को सामने रखा। वैसे तो मैं मुक्तिबोध जी के परिवार से निकटता से जुड़ा हूं, फिर भी इस दौरान उनके जीवन और उनकी रचनाओं के बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिला। यह एक जिज्ञासु में नई दृष्टि को जगाने जैसा अहसास है।
व्यक्तिगत जीवन के सहयात्री नरेश सक्सेना उन साहित्यकारों में हैं, जिन्हें मुक्तिबोध का सान्निध्य मिला। नरेशजी के अंतरंग संस्मरण व्याख्यान साहित्य, संगीत और ज्ञान-विज्ञान के समंदर में एकसाथ गोता लगाने जैसा था। उनसे मुक्तिबोध की समकालीन वैश्विक दृष्टि के बारे में जानकर चकित हुए बिना नहीं रह सका। मुक्तिबोध के साहित्य में क्या बौद्धिक क्या भावात्मक, सबकुछ एक झरने की तरह फूटने लगता है। नरेशजी द्वारा मुक्तिबोध के साथ बिताए क्षणों को याद करना, कभी अनुभूतिजन्य उनके नैन-नक्श की प्रतिकृति स्मृति पटल पर कौंधने लगती तो कभी उनकी रचनाओं में अजब-गजब फंतासी किसी चलचित्र की तरह उभरने लगती। मुक्तिबोध का छत्तीसगढ़ के रायपुर और राजनांदगांव के अलावा मध्यप्रदेश के जबलपुर में भी काफी समय गुजरा है। इस पर नरेशजी ने संभवतः किताब भी लिखी भी हो। इन्हें याद करते हुए नरेशजी का पूरा व्याख्यान मुक्तिबोध की विषम परिस्थिति, ज्ञान-चेतना और कलाबोध पर केंद्रित रहा। इसमें उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बताया कि मुक्तिबोध दरअसल नई कविता की दूसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने अपने दौर की केंद्रीय धुरी बनकर एक विराट आभामंडल बना लिया था। उनसे समकालीन भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित हुए। चाहे वह विनोद कुमार शुक्ल हों या खुद नरेश सक्सेना। सभी समकालीनों की रचनाओं में न सिर्फ उनकी काव्य शब्दावली, बल्कि चिंतन भी मुक्तिबोधमय हो गया। यह सब नई कविता की पहली पीढ़ी से बिलकुल पृथक था। पहली पीढ़ी ज्यादातर उत्तरप्रदेश के रचनाकारों की थी। दूसरी पीढ़ी समूची मध्यप्रदेश से ही है। फूल, पक्षी, चिडिय़ा, नदी, पहाड़ ये कुछ ऐसे रंग हैं, जिनसे रचनाएं नई कविता का रूप ले रही थीं, लेकिन मुक्तिबोध की साहित्यिक धारा में बिलकुल अलग शब्दावली दूसरी पीढ़ी के साथ उभर कर आई। यहां कविताओं में मरे हुए पक्षी, कटे हुए सिर जैसे शब्द चित्र दिखाई देते हैं। 'अठन्नी के सिक्के पर सिर कटा फोटो... यह कविता में एक अभिनव प्रयोग था। जबलपुर के मलय की कविता में 'सड़क चलती हुई नदी में जा गिरी... अन्य कविताओं में भी ऐसी पक्तियों की आवृति मिलती है।व्याख्यान का अगला पहलू मुक्तिबोध के साहित्य में संगीतात्मकता का था। रचनाएं दादरा, कहरवा, ठुमरी जैसी तालों से निबद्ध हैं। अंधेरे में इन्हें शास्त्रीय रागों में बखूबी गाया जा सकता है। उनकी कविताओं के साथ संगीतमय प्रयोग संभवत: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में ज्यादा हुआ है। जेएनयू इस वजह से भी एक अलग तरह के शैक्षणिक संस्थान के तौर पर जाना जाता है। किसी भी काम को उसकी गहराई जाकर अध्ययन-चिंतन का हिस्सा बना लेना। यहां की अनुसंधान प्रवृत्ति में हमेशा से अभिन्न रहा है।मुक्तिबोध की समझ का एक अन्य अद्भुत आयाम उनकी विज्ञान में गहरी समझ भी है। विज्ञान की अवधारणाओं को कविता में पिरोकर बार-बार संवेदनात्मक प्रतिक्रिया और सीख देते हैं। 'एक चौराहे से सौ राहें खुलती हैं, और मैं उन सब पर चल पड़ता हूं...ऐसी तमाम पंक्तियां उनकी कविताओं में मिलती हैं। तत्कालीन समय में न्यूटन, आइंस्टाइन और स्टीफन हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में परस्पर विरोधाभास का उभरना। खासकर आइंस्टाइन और हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में गहरे मतभेद के साथ विवाद का उभर आना। मुक्तिबोध को उस वक्त विज्ञान की परत का गहनबोध था। विवाद का पटाक्षेप करते हुए आखिरकार वैज्ञानिकों ने यूनिफाइड थ्योरी की अवधारणा को अपनाया। सूक्ष्म जगत में कणों और फोटोन (तरंग) दोनों के अस्तित्व को यूनिफाइड थ्योरी के रूप में मान्यता दी गई। इस वैज्ञानिक समझ की झलक मुक्तिबोध की रचनाओं में साफ तौर पर दिखाई पड़ती हैं।
दूसरी ओर उन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानने वाले रचनाकारों में मशहूर हास्य कवि अशोक चक्रधर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे उत्तरप्रदेश की साहित्यिक गोष्ठियों में मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया को जैसे अलहदा अंदाज में प्रस्तुत करने बीड़ा उठाए हुए हैं। वे एक नई धारा की नई रचना प्रक्रिया वाली अवधारणा को न केवल विद्यार्थियों-शोधार्थियों, बल्कि आमजन के बीच में बड़ी सहजता पहुंचाने में पूरी तरह से कामयाब हुए हैं। चक्रधरजी का योगदान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने खासकर ऊर्दू अदब के शायर और लेखकों के बीच मुक्तिबोध को सरल-सहज ढंग से पहुंचाया है, पहुंचा रहे हैं। उनकी नजर में मुक्तिबोध ऐसे रचनाकार हैं, जो दुनियाभर में सबसे अलग और अगुवा हैं। संस्कृत काव्य सिद्धांतों में रस, वक्रोक्ति या अलंकर जैसे अनेक संप्रदाय हों या पश्चिम के वितंडावादी, विरेचन, अभिव्यंजना या अस्तित्ववाद इन सबसे मुक्तिबोध का मुकाम बहुत अलहदा है। मुक्तिबोध के पहले साहित्य की वैतरणी या तो भावधारा या बुद्धि पक्ष की प्रबलता के साथ अलग-अलग बहती रहीं। दोनों के मिलन की संभावना पर कभी किसी ने बात नहीं की। मुक्तिबोध पहले रचनाकार हैं, जिन्होंने दो विपरीत धु्रवों के काव्य सिद्धांतों को एक साथ मिलाकर नई काव्य अवधारणा को जन्म दिया। उनकी रचनाओं को पढऩे समझने से पहले ऊबड़-खाबड़ और जटिल लगने वाली लगने वाली कविताओं का मंतव्य समझना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध मिलने-जुलने वालों से बेबाक तरीके से कहते थे-पहले अपनी पॉलिटिक्स ऑफ़ करो पार्टनर...। अशोक चक्रधर कहते हैं, मुक्तिबोध ने गद्य में रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया है। (वैविध्यपूर्ण जीवन के प्रति आत्मचेतस व्यक्ति की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया ही कविता रचना या कला होती है)। आशय यह है कि विविधताओं से भरे जीवन की गहरी समझ रखने वाला आत्मचेतस व्यक्ति जो बौद्धिकता से लबरेज है, वह जब संवेदनात्मक प्रतिक्रिया करता है तो कला या रचना बन जाती है। यह प्रतिक्रिया रूखी-सूखी नहीं, बल्कि भावात्मक, संवेदनात्मक होना जरूरी है। यह काव्य अवधारणा या परिभाषा अद्भुत है। मुक्तिबोध ने इसी रचना प्रक्रिया को आधार बनाकर कविताएं रची हैं। धीरे-धीरे चढ़ती खुमारी की तरह मुक्तिबोध लोकप्रियता के शिखर पर हैं। उनकी जन्मशती के अवसर पर बॉलीवुड के कलाकार उनकी रचनाओं का पाठ कर रहे हैं। उनकी बड़ी और लंबी कविता 'भूल गलती, अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस आदि का मंचन रंगमंच के कलाकार कर रहे हैं। अपने समय को संवेदना की दृष्टि से देखना। बौद्धिक दृष्टि से समग्र प्रतिक्रिया देना मुक्तिबोध का मंतव्य था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि लिया बहुत-बहुत और दिया बहुत कम। उन्होंने इन पक्तियों के माध्यम से समाज को बड़ा संदेश दिया है कि ज्ञान-बुद्धि, भाव आदि में जो कुछ लिया है उसे कई गुना समाज को लौटाना होगा वरना ब्रह्मराक्षस की तरह प्रेतयोनि में जाएंगे। देश, समाज और मनुष्य जाति के लिए कुछ करके जाना व्यक्ति का अहम लक्ष्य होना चाहिए। मुक्तिबोध आज भी एक साहित्यिक के साथ उपदेशक, दार्शनिक, तत्ववेत्ता और पौराणिक आख्याता के रूप में तनकर खड़े हैं। ऐसी बेबाकी और खरापन दुर्लभ है, जो कबीर और निराला में मिलता है।




Friday, 15 June 2018

Facebook और निराला !


हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया....

 फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। 

यह बात अटपटी लगेगी। आसानी से गले के नीचे उतरने वाली भी नहीं है। Facebook और महाकवि निराला का कोई संबंध हो सकता है? दोनों का समय बिल्कुल अलग। फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। मैं कई बार बोलचाल में उन्हें हिंदी साहित्य को Facebook की तरह आम आदमी के लिए खुला मंच उपलब्ध कराने वाला निर्भीक योद्धा मानता हूं। कहने का आशय इतना भर है कि उन्होंने आज के सोशल मीडिया की तरह साहित्य रचना में वर्ण और मात्रा के गणित की दीवार ढहा दी और मुक्त छंद का उन्मुक्त आकाश दिया।


आम आदमी को आज पब्लिक फोरम पर खुलकर अपनी बात कहने की आजादी है। यही सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खूबी है, इसके चलते यह लोकप्रियता के शिखर पर है। समानता खोजने पर मुझे महसूस हुआ की साहित्य लेखन में सामंती दायरों को तोड़ने की जो लड़ाई महाकवि निराला ने अपने समय में लड़ी है वह Facebook मंच देने जैसी कोशिश से कही बड़ी और ऐतिहासिक है। हिंदी साहित्य के इतिहास में छंदोबद्ध रचनाओं के दायरे को तोड़ने का काम महाकवि निराला ने पूरे दमखम के साथ किया। उनके इस योगदान के प्रति हिंदी साहित्य जगत का हर छोटा-बड़ा रचनाकार हमेशा ऋणी रहेगा। कितनी ही नई विधाओं का जन्म इस विचार से हुआ, नई कविता, तमाम छंदमुक्त रचनाएं और हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया।

आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध


Facebook, Twitter जैसे मंच आज अपनी बात कहने के लिए बड़े आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध है। बड़ी से बड़ी हस्ती और खेत में काम करने वाला कम पढ़ा लिखा गंवई आदमी भी एक साथ खड़ा नजर आता है। विचार प्रक्रिया में परिमार्जन का अंतर हो सकता है, लेकिन विचार अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली है, वह सभी दायरों को तोड़कर नितांत नूतन, जहां हर छोटा-बड़ा एक ही मंच पर नजर आता है। इसके अच्छे और बुरे परिणामों के बारे में जरूर चर्चा की जा सकती है। इस पर खूब चर्चा होती रही है। मुझे लगता है, होनी भी चाहिए क्योंकि इसमें किसी तरह का कोई फ़िल्टर नहीं है कि अच्छे और बुरे विचारों को अलग किया जा सके। मतलब जनहित और जनविरोधी भावनाओं को समाज में विभेद और गलत बातों को फैलाने से रोकने का कोई बहुत पुख्ता कारगर सिस्टम नहीं बन पाया है। यही वजह है कि इसके दुष्परिणाम व्यापक स्तर पर लोगों को चरित्र हनन और चरित्र हत्या के रूप में देखने को मिलते हैं।


ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में


हमारे पास अभी IT कानून तक इतने मजबूत नहीं है कि इस तरह के कुत्सित प्रयासों को प्रभावी तरीके से रोका जा सके। Facebook पर यूजर्स के व्यक्तिगत डेटा चोरी का आरोप लग चुका है और इससे जुड़े कैंब्रिज एनालिटिका डाटा लीक विवाद के बाद Facebook को 425 पन्नों में 2,000 से ज्यादा सवालों के जवाब देने पड़े हैं। इसमें Facebook ने कबूला है कि वह यूजर के कीबोर्ड और माउस के मूवमेंट पर भी नजर रखता है। यह भी पता लगाने की कोशिश करता है कि फोन की बैटरी कितनी बची है, ऐसा करके वह एक-एक यूजर की पसंद और नापसंद जानने की कोशिश करता है। इस ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में है।


परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध

जहां तक सोशल मीडिया के अन्य प्रभाव की बात है सोशल प्लेटफार्म ने परंपरागत मीडिया की हालत वैसे ही कर दी है जैसे उसके हिस्से का जल नई पीढ़ी की मछली ने चुरा लिया है। या एक तरह से इसके अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। जिस पावर के दम पर परंपरागत मीडिया अपनी पूरी शख्सियत और प्रभाव प्रस्तुत करता था, उसमें जैसे सेंध लगा दी है। सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की भीड़ में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपनी हर छोटी बड़ी बात इस मंच से कह डालते हैं। और पलभर में करोड़ों लोग उन से जुड़ते हैं। बल्कि परंपरागत मीडिया को भी उसे खबर के रूप में उठाने पर मजबूर होना पड़ता है। एक जमाना था जब बड़े मीडिया हाउसेस के गेट पर इन्हीं शख्सियतों को कतार लगानी होती थी कि उनकी बात इस मंच के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने का अवसर मिल जाए। बदले हुए हालात का अंदाजा लगा सकते हैं कि किस कदर परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध लगाने की कोशिश सोशल मीडिया ने की है।








Wednesday, 13 June 2018

छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा...दिल में बसा है छत्तीसगढ़... फिल्मकार अनुराग बसु

पद्मभूषण तीजन बाई की तरह छत्तीसगढ़ की एक और प्रतिभा फिल्मकार अनुराग बसु से एक अर्से पहले अंतरंग बातचीत का अवसर मिला। फोन पर हुई इस लंबी चर्चा की भी अपनी एक कहानी है। एक विशेष परिशिष्ठ के लिए साक्षात्कार का मुझे असाइंमेंट मिला हुआ था, मैंने कला और संस्कृति की इन दो हस्तियों का चुना और बातचीत के प्रसास में जुट गया। काफी खोजबीन के उपरांत उनका फोन नंबर कहीं से मिला, लेकिन पता चला कि वे मोबाइल साथ नहीं रखते बल्कि उनकी माताजी के पास रहता है।मैंने फोन लगाया तो उनकी मम्मीजी ने ही उठाया। मैंने निवेदनपूर्वक उनसे कहा अनुराग जी से बहुत जरूरी बात करनी है? क्या आप मेरी बात करा सकती हैं। उन्होंने जवाब दिया क्यों नहीं। आप फोन रविवार को लगा लीजिए। मैंने तय समय में उन्हें कॉल किया और वे फोन पर रूबरू हुए। फिर क्या दिल खोलकर बातचीत का सिलसिला चला। इस दिलचस्प बातचीत के अंश मैं अपने ब्लाग पर शेयर कर रहा हूं जो अभी कहीं पर प्रकाशित नहीं हुए हैं। उम्मीद है आपको ये बातचीत पंसद आएगी।  


- निर्देशक और लेखक 
- 1993 से बालीवुड में सक्रिय 
- जन्म रायपुर छत्तीसगढ़ में 
- शुरुआती थिएटर: रायपुर व भिलाई 
- गैंगेस्टर्स, मर्डर, लाइफ इन मेट्रो, बर्फी जैसी चर्चित फिल्में 

रियलटी शो के हर मंच पर छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा...को गूंजायमान करने वाले मशहूर फिल्मकार अनुराग बसु का दिल हरदम छत्तीसगढ़ के लिए धड़कता है। बालीवुड की सिनेमाई जिंदगी में बेहद व्यस्त निर्देशक अनुराग बसु के दिल में छत्तीसगढ़ गहरे बसा हुआ है। वे इस बात को जोर देकर कहते हैं कि किसी छत्तीसगढिय़ा से कहीं ज्यादा मैं छत्तीसगढ़ी हूं। छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा पर मुझे गर्व है। रायपुर में पैदा हुआ हूं। मेरे पिताजी की पैदाईश यहीं की है। यहां पढ़ा, लिखा और बड़ा हुआ। पिता की नौकरी भिलाई स्टील प्लांट में थी। वहां मेरा काफी समय गुजरा। इन दोनों शहरों के थिएटर से गहरा नाता रहा। पंथी के मशहूर कलाकार स्व. देवदास बंजारे और अन्य लोक कलाकारों के साथ काम किया। थिएटर और कला की बारीकियों को यहीं से सीखा। बाद में मेरे पिता के सपने को पूरा करने मुंबई चला आया। उन्होंने मुंबई में कुछ ही सालों के संघर्ष में एक से बढ़कर एक फिल्में दी हैं। आस्कर के लिए नामित सर्वाधिक कामयाब फिल्म बर्फी और इससे पूर्व गैंगेस्टर्स, लाइफ इन ए मेट्रो जैसी अनेक फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं।
इतने वर्षों के बाद भी छत्तीसगढ़ जैसे उनका घर है। वे यहां का हालचाल एक स्थानीय निवासी की तरह जानते हैं। वे व्यस्तम क्षणों में भी चुपके से रायपुर और भिलाई में अपने मित्रों, परिचितों और परिजनों से मिलने चले आते हैं, जिसकी भनक बहुत कम लोगों को होती है। मध्यप्रदेश से अलग हुआ छत्तीसगढ़ उन्हें वर्तमान में थोड़ा विकसित जरूर लगता है। यह विकास केवल शहरों और उसके आसपास के गांवों में ही दिखता है। अभी भी दूरस्त ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में वे ठहराव सा महसूस करते हैं। वैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध छत्तीसगढ़ के पास कला व संस्कृति का खजाना है। यहां २२ किस्मों वाली फोक शैली की विरासत है। पंडवानी के दो-दो घराने हैं। इन्हें संजोए रखने की चुनौती है। फिल्मों और टेलीविजन के प्रभाव से सांस्कृति को नुकसान पहुंचा है। इसका असर केवल छत्तीसगढ़ के स्थानीय कलाकारों पर नहीं बल्कि अन्य राज्यों पर भी है। नई पीढ़ी को इससे जोडऩे की जरूरत है। बच्चे और युवाओं को नया रायपुर में जमीन के रेट मामूल हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि एशिया का इकलौता संगीत-कला विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ में है।
बहुत कुछ करना चाहता हूं...
अनुराग बसु छत्तीसगढ़ की प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने और उनके लिए कुछ करने की इच्छा रखते हैं। उनका कहना है कि आने वाले दिनों वक्त मिला और स्थानीय लोगों का साथ मिला तो निश्चित तौर पर राज्य के लिए बहुत कुछ कर पाऊंगा। यह तथ्य चर्चा में रहा है कि बर्फी का आइडिया भिलाई के ही एक मानसिक विकलांग स्कूल से लिया है। इसके अलावा भी फिल्म में कई ऐसे फ्रेम हैं, जहां अनुराग और उनका भिलाई जीवंत हो उठता है। मुस्कान मानसिक विकलांग विद्यालय एवं पुनर्वास केंद्र चल रहा है।

Tuesday, 12 June 2018

लालच का घर खाली... तीजन की जुबानी

छत्तीसगढ़ आइकॉन और पंडवानी लोक शैली की स्वर कोकिला पद्मभूषण तीजन बाई को अटैक आने की खबर फैली तो उनके चाहने वालों में जैसे खलबली मच गई। उनके गंभीर होने की खबरों का उन्होंने खुद ही पुरजोर तरीके से खंडन किया और जिंदादिली का परिचय देते हुए भिलाई के अस्पताल से कहा देखो मैं ठीक हूं.. बहरहाल तीजन बाई दीर्घायु हों हम सबकी शुभकामनाएं है। इस बीच मुझे याद आया कि मैंने कुछ महीने पहले ही उन से विशेष बातचीत की थी। हालांकि यह साक्षात्कार अभी तक कहीं भी प्रकाशित नहीं हुआ है। अपने ब्लॉग पर इसे आप सबके लिए शेयर कर रहा हूं। एक बार जरूर पढ़िएगा। आशा है पसंद आएगा। प्रतिक्रिया जरूर दीजिये।

जन्म- अप्रैल 1956
गांव- गनियरी भिलाई छत्तीसगढ़
विधा- पंडवानी लोक शैली गायन
सम्मान- पद्मभूषण- 2003
पद्मश्री- 1988
संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 1995

बचपन से कभी जिसने स्कूल-कालेज का मुंह नहीं देखा ऐसी पंडवानी की स्वर कोकिला तीजन बाई पर डाक्टेरेट जैसी उपाधियां न्यौछावर हैं। वह छत्तीगढ़ की अघोषित ब्रांड एम्बेसेडर हैं। पद्मभूषण से देश-विदेश में ख्याति के बावजूद उनको कभी धन दौलत जमा करने का मोह नहीं रहा। एक उपदेशक की तरह कहतीं हैं कि लालच करना अच्छी बात नहीं है क्योंकि लालच का घर खाली। उम्र के पांच दशक पूरा कर चुकीं तीजन बाई को जीवन में कोई शिकायत नहीं है। ठेठ छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने वाली तीजन की छत्तीसगढ़ के लिए आईकान की तरह पहचान है।
उनकी दिली ख्वाईश है कि छत्तीसगढ़ विकास करे। सरकार और जनता के सामूहिक प्रयास से यह सबसे विकसित राज्य बने। पढ़ाई लिखाई में आगे बढ़ा है। विकास में सबकी सहभागिता हो और उसका लाभ भी उन्हें मिले तभी प्रदेश का असली विकास कहा जाएगा। कलाकारों को आगे बढऩे के पर्याप्त अवसर हैं। मेहनत करके सम्मान के वे हकदार हो सकते हैं। अपना काम करते चलो सम्मान मिले या न मिले। मेहनत रंग लाती है। मैंने जीवन में कमजोर परिस्थिति में कला के लिए अपना समर्पण किया। सबकुछ सहते हुए कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे बच्चों के बीच जाती हैं तो अक्सर प्रेरणा और आशीर्वाद स्वरूप कहती हैं कि जो जिस क्षेत्र में माहिर है, उसको जतन से पकड़े रहो। पीछे मुड़कर मत देखो। हिम्मत, लगन और अपनी प्रतिभा लगाकर पंडवानी गायन किया। उसी का नतीजा है कि आज इस मुकाम पर हैं। वे अब तक दो सौ से ज्यादा बच्चों को पंडवानी की ट्रेनिंग दे चुकी हैं। इनमें से कुछ सिद्धस्त कलाकार बनने की राह पर हैं।
तंबूरा थामने वाले हाथ कभी कंप्यूटर के की बोर्ड पर भले ही न चल पाए हों, लेकिन घर-परिवार के सब काम करती हैं। सब्जी बनाती हूं। चटनी बनाती हूं। धान मिंजाई व ओसाई भी कर लेती हूं। तीजनबाई साफगोई से कहती हैं- ईमानदारी से कहूं मैं आज भी गांव की हूं। आप ही बताएं मैं कहां से बड़ी हूं। बच्चों और बूढ़ों के बीच घुलमिलकर बैठ जाती हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ी खाना पसंद है। एक टाइम बासी रात में पका चावल पानी में डाल कर और टमामर की चटनी उनको बहुत पसंद है। देश विदेश घूम आई हैं, लेकिन स्वदेश से खास लगाव है। खासकर यहां की विविध कला और संस्कृति आकर्षित करने वाली है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात उन्हें अच्छी तरह याद है। उन्होंने बताया कि उन्होंने पंडवानी सुनी और इतनी अभिभूत हो गईं कि महाभारत का प्रसंग समाप्त होने के बाद इंदिराजी ने उनकी पीठ थपथपाई।

Monday, 28 May 2018

पत्रकार-साहित्यकार रघुवीर सहाय को याद करते हुए...

स्वाध्याय और एकांत, चिंतन-मनन की प्रक्रिया को न सिर्फ तीव्र करता है, बल्कि अनुभूति के स्तर पर काफी कुछ नया सीखने और समझने को मिलता है, बहराल ऐसे कम ही अवसर आते हैं फिर जब कभी ऐसे मौके आएं तो गंवाना नहीं चाहिए। इन्हीं बहुमूल्य पलों में बहुआयामी रचनाकारों के व्यक्तित्व को जानने की कोशिश की। इनमें कुछ नाम मेरे पसंदीदा लेखक और साहित्यकारों के हैं। महाभारत की अमर कथा पर बीआर चोपड़ा के सीरियल के लिए लिखने वाले राही मासूम रजा और बेहतरीन पत्रकार और लेखक साहित्यकार कमलेश्वर,  बिलासपुर में जन्मे श्रीकांत वर्मा और पत्रकार व साहित्यकार की दोहरी भूमिका में बेहद खरे उतरने वाले लेखक साहित्यकार पत्रकार रघुवीर सहाय के लेखन की बारीकियों को समझने की कोशिश करें तो वे व्यावसायिक लेखन के साथ गंभीर लेखन की मूल्यवान धरोहर छोड़ गए हैं। मानवीय संवेदनाओं को जगाने वाली ऐसी रचनाएं की हैं, जिन्हें साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक संस्थाओं को सहेजने पर मजबूर होना पड़ता है बल्कि उन्हें सम्मान के लायक भी समझा गया। उनकी धारदार अभिव्यक्ति आम पाठक जन के मस्तिष्क पर भी गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। ्दिशा देने वाला मार्गदर्शक साहित्य समाज की अमूल्य निधि की तरह है। यह कैसे संभव हुआ? यही मेरी पड़ताल का विषय था, मैंने पाया के रघुवीर सहाय कहते हैं कि किसी व्यक्ति की ठंड या भूख से मौत की खबर तो बन सकती है, लेकिन उन असमय मृत्यु को प्राप्त होने वाले व्यक्ति के जीवन संघर्ष पर शायद ही कोई लिखता है। एक पत्रकार चाहे तो उसकी जीवन गाथा को कविता, कहानी, उपन्यास का रूप दे सकता है। बड़े ही संवेदनशीलता के साथ रघुवीर सहाय रचना-प्रक्रिया पर अपनी बात कहते हैं और इसके दर्शन उनकी रचनाओं में हर जगह होते हैं। इसी को जोड़ते हुए अपनी बात कहता हूं कि अखबार का लिखा हुआ यानी तथ्यों पर आधारित और निश्चित फॉर्मेट में बंधी हुई सूचनाएं या खबरें समय के साथ अप्रासंगिक हो जाती हैं, लेकिन उनसे जुड़ी हुई गहरी भावना और संवेदना पर लेखन समय सापेक्ष हो जाता है। अर्थात पत्रकार समांतर रूप से संवेदना के स्तर पर खबरों को महसूस कर लिखने का हुनर दिखाए तो रघुवीर सहाय या अन्य रचनाकारों की तरह दोहरी भूमिका बखूबी निभा सकता है। यह एक समर्पित तौर पर काम करने वाले के लिए तभी आसान होगा जब आप अखबार में भी सफलतापूर्वक काम करें और अपनी भावनाओं, संवेदना और अकादमिक पहलू को परिभाषित करते हुए  गंभीर लेखन भी साथ-साथ कर सकें। यह कला, रचनाधर्मिता एक बेहतर अच्छे पत्रकार के लिए अपेक्षित ही नहीं अनिवार्य हिस्सा भी है।


Tuesday, 3 April 2018

रूठा हुआ बसंत...


रूठा हुआ बसंत...

वेब तरंगों पर बैठी कोकिल बैनी इस बसंत का दर्द गा-गाकर सुनाती,
आंसुओं में सब कुछ भीगा-भीगा,
इस बसंत का हाल,
मन भावनी मूरत का खंडित-खंडित होना, होली के पहले ज्यों बसंत का बिखर-बिछड़ जाना,
मोटी-मोटी अंखियों में बसंती मादकता का रसवास लिए जब भी एकटक,
सीधे दिल की गहराइयों में उतरा,
बस एक गिला यही रहा,
असमय मधुमास के मुकुट सजी आम्र मंजरी पर एकाएक तुषारापात,
फसलों की लहराती केशु सबको आगोश लिए,
चाहत चांदनी को तिलक देत रघुवीर, बोले शब्दों की गाथा में जैसे पतझड़ के बिछड़े पत्तों पर चला गया मधुमास,
जब भी उसके केशु लहराए घटाटोप अंधियारे में, तन-मन पर छाया यौवन का उजास,
ऐसा रुठा बसंत हमसे,
बेमौसम बादल छाए,
तूफानी कलरव लेकर आया लहराती फसलों पर पतझड़ सा बिखराव !!!