Friday, 20 July 2018

मुक्तिबोध : जन्मशती, समीक्षा और संस्मरण

गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म- 13 नवम्बर 1917
निधन- 11 सितम्बर 1964
जन्म स्थान- श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कुछ प्रमुख कृतियाँ
चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी:एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियाँ) एवं भारत:इतिहास और संस्कृति।
मुक्तिबोध का विद्यार्थी होने के नाते उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की समीक्षा करने वालों पर मेरी हमेशा जिज्ञासादृष्टि रही है। वैसे भी मुक्तिबोध को पूरी गहराई और शिद्दत से स्मरण करने का मौका भी है, दस्तूर भी। यह उनकी जन्मशती का खास अवसर जो है। साहित्य में उनके अतुलनीय योगदान को देशभर में याद किया गया। रायपुर से लेकर दिल्ली तक यह सिलसिला चला। जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि जीते-जी जिस कवि को नाम और मुकाम हासिल नहीं हुआ, मरणोपंरात हिंदी ही नहीं ऊर्दू साहित्य की अध्येता जमात तक उनकी अनूठी रचनाप्रक्रिया, फंतासी, कथ्य, शैली पर व्याख्यानमाला कर रही है। बड़ी तादाद में युवा पीढ़ी भी उनके अवदान पर चर्चा में शामिल हो रही है। यह कोई मामूली बात नहीं है। पीढिय़ां बदलते ही अक्सर साहित्यकार भुला दिए जाते हैं, हालांकि मुझे मलाल है, इस दौरान किसी भी बड़े आयोजन में शरीक होने का सौभाग्य नहीं मिला। उनकी स्मृति में साहित्यिक पत्रिकाओं में खूब लिखा गया। सोशल मीडिया पर भी उनके शब्दों का अनमोल खजाना चर्चा में रहा। कुछ महत्वपूर्ण आयोजन के वीडियो अंश मेरे हाथ लगे। ये मेरे लिए किसी नायाब तोहफे से कम नहीं। इनमें मुक्बिोध के परिचित रचनाकार, जिन्होंने उनके साथ लंबा वक्त बिताया और वे भी, जो उन्हें व्यक्गित रूप से नहीं जानते थे, रचनाओं के माध्यम से मुक्तिबोध के व्यक्तित्व और कृतित्व को गहरी समझ के साथ इन विद्वानों ने उनके साहित्य की समीक्षा की और संस्मरण व्याख्यान भी दिए। मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से लेकर रायपुर तक तमाम जगह पर आयोजित उनके जन्मशती समारोह में घूम-घूमकर मुक्तिबोध के जीवन के हर पहलू को सामने रखा। वैसे तो मैं मुक्तिबोध जी के परिवार से निकटता से जुड़ा हूं, फिर भी इस दौरान उनके जीवन और उनकी रचनाओं के बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिला। यह एक जिज्ञासु में नई दृष्टि को जगाने जैसा अहसास है।
व्यक्तिगत जीवन के सहयात्री नरेश सक्सेना उन साहित्यकारों में हैं, जिन्हें मुक्तिबोध का सान्निध्य मिला। नरेशजी के अंतरंग संस्मरण व्याख्यान साहित्य, संगीत और ज्ञान-विज्ञान के समंदर में एकसाथ गोता लगाने जैसा था। उनसे मुक्तिबोध की समकालीन वैश्विक दृष्टि के बारे में जानकर चकित हुए बिना नहीं रह सका। मुक्तिबोध के साहित्य में क्या बौद्धिक क्या भावात्मक, सबकुछ एक झरने की तरह फूटने लगता है। नरेशजी द्वारा मुक्तिबोध के साथ बिताए क्षणों को याद करना, कभी अनुभूतिजन्य उनके नैन-नक्श की प्रतिकृति स्मृति पटल पर कौंधने लगती तो कभी उनकी रचनाओं में अजब-गजब फंतासी किसी चलचित्र की तरह उभरने लगती। मुक्तिबोध का छत्तीसगढ़ के रायपुर और राजनांदगांव के अलावा मध्यप्रदेश के जबलपुर में भी काफी समय गुजरा है। इस पर नरेशजी ने संभवतः किताब भी लिखी भी हो। इन्हें याद करते हुए नरेशजी का पूरा व्याख्यान मुक्तिबोध की विषम परिस्थिति, ज्ञान-चेतना और कलाबोध पर केंद्रित रहा। इसमें उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बताया कि मुक्तिबोध दरअसल नई कविता की दूसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने अपने दौर की केंद्रीय धुरी बनकर एक विराट आभामंडल बना लिया था। उनसे समकालीन भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित हुए। चाहे वह विनोद कुमार शुक्ल हों या खुद नरेश सक्सेना। सभी समकालीनों की रचनाओं में न सिर्फ उनकी काव्य शब्दावली, बल्कि चिंतन भी मुक्तिबोधमय हो गया। यह सब नई कविता की पहली पीढ़ी से बिलकुल पृथक था। पहली पीढ़ी ज्यादातर उत्तरप्रदेश के रचनाकारों की थी। दूसरी पीढ़ी समूची मध्यप्रदेश से ही है। फूल, पक्षी, चिडिय़ा, नदी, पहाड़ ये कुछ ऐसे रंग हैं, जिनसे रचनाएं नई कविता का रूप ले रही थीं, लेकिन मुक्तिबोध की साहित्यिक धारा में बिलकुल अलग शब्दावली दूसरी पीढ़ी के साथ उभर कर आई। यहां कविताओं में मरे हुए पक्षी, कटे हुए सिर जैसे शब्द चित्र दिखाई देते हैं। 'अठन्नी के सिक्के पर सिर कटा फोटो... यह कविता में एक अभिनव प्रयोग था। जबलपुर के मलय की कविता में 'सड़क चलती हुई नदी में जा गिरी... अन्य कविताओं में भी ऐसी पक्तियों की आवृति मिलती है।व्याख्यान का अगला पहलू मुक्तिबोध के साहित्य में संगीतात्मकता का था। रचनाएं दादरा, कहरवा, ठुमरी जैसी तालों से निबद्ध हैं। अंधेरे में इन्हें शास्त्रीय रागों में बखूबी गाया जा सकता है। उनकी कविताओं के साथ संगीतमय प्रयोग संभवत: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में ज्यादा हुआ है। जेएनयू इस वजह से भी एक अलग तरह के शैक्षणिक संस्थान के तौर पर जाना जाता है। किसी भी काम को उसकी गहराई जाकर अध्ययन-चिंतन का हिस्सा बना लेना। यहां की अनुसंधान प्रवृत्ति में हमेशा से अभिन्न रहा है।मुक्तिबोध की समझ का एक अन्य अद्भुत आयाम उनकी विज्ञान में गहरी समझ भी है। विज्ञान की अवधारणाओं को कविता में पिरोकर बार-बार संवेदनात्मक प्रतिक्रिया और सीख देते हैं। 'एक चौराहे से सौ राहें खुलती हैं, और मैं उन सब पर चल पड़ता हूं...ऐसी तमाम पंक्तियां उनकी कविताओं में मिलती हैं। तत्कालीन समय में न्यूटन, आइंस्टाइन और स्टीफन हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में परस्पर विरोधाभास का उभरना। खासकर आइंस्टाइन और हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में गहरे मतभेद के साथ विवाद का उभर आना। मुक्तिबोध को उस वक्त विज्ञान की परत का गहनबोध था। विवाद का पटाक्षेप करते हुए आखिरकार वैज्ञानिकों ने यूनिफाइड थ्योरी की अवधारणा को अपनाया। सूक्ष्म जगत में कणों और फोटोन (तरंग) दोनों के अस्तित्व को यूनिफाइड थ्योरी के रूप में मान्यता दी गई। इस वैज्ञानिक समझ की झलक मुक्तिबोध की रचनाओं में साफ तौर पर दिखाई पड़ती हैं।
दूसरी ओर उन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानने वाले रचनाकारों में मशहूर हास्य कवि अशोक चक्रधर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे उत्तरप्रदेश की साहित्यिक गोष्ठियों में मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया को जैसे अलहदा अंदाज में प्रस्तुत करने बीड़ा उठाए हुए हैं। वे एक नई धारा की नई रचना प्रक्रिया वाली अवधारणा को न केवल विद्यार्थियों-शोधार्थियों, बल्कि आमजन के बीच में बड़ी सहजता पहुंचाने में पूरी तरह से कामयाब हुए हैं। चक्रधरजी का योगदान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने खासकर ऊर्दू अदब के शायर और लेखकों के बीच मुक्तिबोध को सरल-सहज ढंग से पहुंचाया है, पहुंचा रहे हैं। उनकी नजर में मुक्तिबोध ऐसे रचनाकार हैं, जो दुनियाभर में सबसे अलग और अगुवा हैं। संस्कृत काव्य सिद्धांतों में रस, वक्रोक्ति या अलंकर जैसे अनेक संप्रदाय हों या पश्चिम के वितंडावादी, विरेचन, अभिव्यंजना या अस्तित्ववाद इन सबसे मुक्तिबोध का मुकाम बहुत अलहदा है। मुक्तिबोध के पहले साहित्य की वैतरणी या तो भावधारा या बुद्धि पक्ष की प्रबलता के साथ अलग-अलग बहती रहीं। दोनों के मिलन की संभावना पर कभी किसी ने बात नहीं की। मुक्तिबोध पहले रचनाकार हैं, जिन्होंने दो विपरीत धु्रवों के काव्य सिद्धांतों को एक साथ मिलाकर नई काव्य अवधारणा को जन्म दिया। उनकी रचनाओं को पढऩे समझने से पहले ऊबड़-खाबड़ और जटिल लगने वाली लगने वाली कविताओं का मंतव्य समझना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध मिलने-जुलने वालों से बेबाक तरीके से कहते थे-पहले अपनी पॉलिटिक्स ऑफ़ करो पार्टनर...। अशोक चक्रधर कहते हैं, मुक्तिबोध ने गद्य में रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया है। (वैविध्यपूर्ण जीवन के प्रति आत्मचेतस व्यक्ति की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया ही कविता रचना या कला होती है)। आशय यह है कि विविधताओं से भरे जीवन की गहरी समझ रखने वाला आत्मचेतस व्यक्ति जो बौद्धिकता से लबरेज है, वह जब संवेदनात्मक प्रतिक्रिया करता है तो कला या रचना बन जाती है। यह प्रतिक्रिया रूखी-सूखी नहीं, बल्कि भावात्मक, संवेदनात्मक होना जरूरी है। यह काव्य अवधारणा या परिभाषा अद्भुत है। मुक्तिबोध ने इसी रचना प्रक्रिया को आधार बनाकर कविताएं रची हैं। धीरे-धीरे चढ़ती खुमारी की तरह मुक्तिबोध लोकप्रियता के शिखर पर हैं। उनकी जन्मशती के अवसर पर बॉलीवुड के कलाकार उनकी रचनाओं का पाठ कर रहे हैं। उनकी बड़ी और लंबी कविता 'भूल गलती, अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस आदि का मंचन रंगमंच के कलाकार कर रहे हैं। अपने समय को संवेदना की दृष्टि से देखना। बौद्धिक दृष्टि से समग्र प्रतिक्रिया देना मुक्तिबोध का मंतव्य था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि लिया बहुत-बहुत और दिया बहुत कम। उन्होंने इन पक्तियों के माध्यम से समाज को बड़ा संदेश दिया है कि ज्ञान-बुद्धि, भाव आदि में जो कुछ लिया है उसे कई गुना समाज को लौटाना होगा वरना ब्रह्मराक्षस की तरह प्रेतयोनि में जाएंगे। देश, समाज और मनुष्य जाति के लिए कुछ करके जाना व्यक्ति का अहम लक्ष्य होना चाहिए। मुक्तिबोध आज भी एक साहित्यिक के साथ उपदेशक, दार्शनिक, तत्ववेत्ता और पौराणिक आख्याता के रूप में तनकर खड़े हैं। ऐसी बेबाकी और खरापन दुर्लभ है, जो कबीर और निराला में मिलता है।




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