Saturday, 25 August 2018

लोकतंत्र के प्रहरी


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के महान नेताओं में शुमार हैं। उनके निधन पर एक जननेता के प्रति जो सम्मान प्रकट करना चाहिए उससे बढ़कर देश ने उन्हें नमन किया। क्या पक्ष, क्या विपक्ष उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और शीर्ष राजनीतिक कद के सभी कायल हैं। संवेदनशील कवि, प्रखर पत्रकार, बेदाग सियासी चेहरा जैसी तमाम खूबियों वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अटलजी के योगदान को सभी ने अपने-अपने तरीके से स्मरण किया। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी पर अटलजी कितने खरे? इस पर विचार ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए। क्योंकि मौजूदा भाजपा सरकार का चाल-चरित्र अटलजी वाला तो कतई नहीं कहा जा सकता। भाजपा अपने पितृ पुरुष के लोकतान्त्रिक आचरण पर कितना चल पा रही यह बहस का विषय बना हुआ है। यह जरूरी है कि लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अटलजी का विचारण करते हुए उनके महत्वपूर्ण भाषणों के दो लफ्जों पर फोकस करना होगा। एक संख्याबल के सामने हमेशा शीष झुकाना और दूसरा बहुदलीय व्यवस्था का सम्मान। 13 दिन और 13 महीने की सरकार छोड़ते समय संसद में दिए ऐतिहासिक भाषण में हताशा नहीं बल्कि दोनों के प्रति सम्मान और इन्हीं के बल पर फिर जीतकर आऊंगा... उम्मीद का गहरा भाव केंद्रित रहा। वास्तव में ये दोनों पहलू लोकतंत्रीय व्यवस्था की रीढ़ हैं। इन्हें निकाल दिया जाए तो अमेरिका या दूसरे कई देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था के ड्राबैक सामने जा जाते हैं। वहां दो दलीय व्यवस्था है। ऐसे में वहां की जनता के पास दो ही विकल्प हैं। ये दल या ओ दल। कहने का आशय यह है कि लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उसके नागरिकों में निहीत होनी चाहिए, वह गायब है।
इस मामले में अटलजी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के नायाब नेता साबित हुए, जिन्होंने अपनी राजनीतिक चेतना के मूल में संख्याबल और बहुदलीय व्यवस्था का न केवल दिल से सम्मान किया बल्कि इनसे ही राजनीतिक समन्वय का मंत्र भी दिया। आजादी के बाद पहले ऐसे चमत्कारिक नेतृत्व का ओहदा पाने में कामयाब हुए जिसमें 24 दलों के भानुमति के कुनबे वाली सरकार को पूरे पांच साल चालने का करिश्मा कर दिखाया। लोकतंत्र भारतीयता के मूल में है। इस देश की रक्तवाहिनियों में प्राचीन काल से संचरित है।

अगली कड़ी में जारी...

No comments:

Post a Comment