Friday, 15 June 2018

Facebook और निराला !


हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया....

 फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। 

यह बात अटपटी लगेगी। आसानी से गले के नीचे उतरने वाली भी नहीं है। Facebook और महाकवि निराला का कोई संबंध हो सकता है? दोनों का समय बिल्कुल अलग। फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। मैं कई बार बोलचाल में उन्हें हिंदी साहित्य को Facebook की तरह आम आदमी के लिए खुला मंच उपलब्ध कराने वाला निर्भीक योद्धा मानता हूं। कहने का आशय इतना भर है कि उन्होंने आज के सोशल मीडिया की तरह साहित्य रचना में वर्ण और मात्रा के गणित की दीवार ढहा दी और मुक्त छंद का उन्मुक्त आकाश दिया।


आम आदमी को आज पब्लिक फोरम पर खुलकर अपनी बात कहने की आजादी है। यही सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खूबी है, इसके चलते यह लोकप्रियता के शिखर पर है। समानता खोजने पर मुझे महसूस हुआ की साहित्य लेखन में सामंती दायरों को तोड़ने की जो लड़ाई महाकवि निराला ने अपने समय में लड़ी है वह Facebook मंच देने जैसी कोशिश से कही बड़ी और ऐतिहासिक है। हिंदी साहित्य के इतिहास में छंदोबद्ध रचनाओं के दायरे को तोड़ने का काम महाकवि निराला ने पूरे दमखम के साथ किया। उनके इस योगदान के प्रति हिंदी साहित्य जगत का हर छोटा-बड़ा रचनाकार हमेशा ऋणी रहेगा। कितनी ही नई विधाओं का जन्म इस विचार से हुआ, नई कविता, तमाम छंदमुक्त रचनाएं और हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया।

आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध


Facebook, Twitter जैसे मंच आज अपनी बात कहने के लिए बड़े आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध है। बड़ी से बड़ी हस्ती और खेत में काम करने वाला कम पढ़ा लिखा गंवई आदमी भी एक साथ खड़ा नजर आता है। विचार प्रक्रिया में परिमार्जन का अंतर हो सकता है, लेकिन विचार अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली है, वह सभी दायरों को तोड़कर नितांत नूतन, जहां हर छोटा-बड़ा एक ही मंच पर नजर आता है। इसके अच्छे और बुरे परिणामों के बारे में जरूर चर्चा की जा सकती है। इस पर खूब चर्चा होती रही है। मुझे लगता है, होनी भी चाहिए क्योंकि इसमें किसी तरह का कोई फ़िल्टर नहीं है कि अच्छे और बुरे विचारों को अलग किया जा सके। मतलब जनहित और जनविरोधी भावनाओं को समाज में विभेद और गलत बातों को फैलाने से रोकने का कोई बहुत पुख्ता कारगर सिस्टम नहीं बन पाया है। यही वजह है कि इसके दुष्परिणाम व्यापक स्तर पर लोगों को चरित्र हनन और चरित्र हत्या के रूप में देखने को मिलते हैं।


ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में


हमारे पास अभी IT कानून तक इतने मजबूत नहीं है कि इस तरह के कुत्सित प्रयासों को प्रभावी तरीके से रोका जा सके। Facebook पर यूजर्स के व्यक्तिगत डेटा चोरी का आरोप लग चुका है और इससे जुड़े कैंब्रिज एनालिटिका डाटा लीक विवाद के बाद Facebook को 425 पन्नों में 2,000 से ज्यादा सवालों के जवाब देने पड़े हैं। इसमें Facebook ने कबूला है कि वह यूजर के कीबोर्ड और माउस के मूवमेंट पर भी नजर रखता है। यह भी पता लगाने की कोशिश करता है कि फोन की बैटरी कितनी बची है, ऐसा करके वह एक-एक यूजर की पसंद और नापसंद जानने की कोशिश करता है। इस ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में है।


परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध

जहां तक सोशल मीडिया के अन्य प्रभाव की बात है सोशल प्लेटफार्म ने परंपरागत मीडिया की हालत वैसे ही कर दी है जैसे उसके हिस्से का जल नई पीढ़ी की मछली ने चुरा लिया है। या एक तरह से इसके अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। जिस पावर के दम पर परंपरागत मीडिया अपनी पूरी शख्सियत और प्रभाव प्रस्तुत करता था, उसमें जैसे सेंध लगा दी है। सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की भीड़ में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपनी हर छोटी बड़ी बात इस मंच से कह डालते हैं। और पलभर में करोड़ों लोग उन से जुड़ते हैं। बल्कि परंपरागत मीडिया को भी उसे खबर के रूप में उठाने पर मजबूर होना पड़ता है। एक जमाना था जब बड़े मीडिया हाउसेस के गेट पर इन्हीं शख्सियतों को कतार लगानी होती थी कि उनकी बात इस मंच के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने का अवसर मिल जाए। बदले हुए हालात का अंदाजा लगा सकते हैं कि किस कदर परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध लगाने की कोशिश सोशल मीडिया ने की है।








Wednesday, 13 June 2018

छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा...दिल में बसा है छत्तीसगढ़... फिल्मकार अनुराग बसु

पद्मभूषण तीजन बाई की तरह छत्तीसगढ़ की एक और प्रतिभा फिल्मकार अनुराग बसु से एक अर्से पहले अंतरंग बातचीत का अवसर मिला। फोन पर हुई इस लंबी चर्चा की भी अपनी एक कहानी है। एक विशेष परिशिष्ठ के लिए साक्षात्कार का मुझे असाइंमेंट मिला हुआ था, मैंने कला और संस्कृति की इन दो हस्तियों का चुना और बातचीत के प्रसास में जुट गया। काफी खोजबीन के उपरांत उनका फोन नंबर कहीं से मिला, लेकिन पता चला कि वे मोबाइल साथ नहीं रखते बल्कि उनकी माताजी के पास रहता है।मैंने फोन लगाया तो उनकी मम्मीजी ने ही उठाया। मैंने निवेदनपूर्वक उनसे कहा अनुराग जी से बहुत जरूरी बात करनी है? क्या आप मेरी बात करा सकती हैं। उन्होंने जवाब दिया क्यों नहीं। आप फोन रविवार को लगा लीजिए। मैंने तय समय में उन्हें कॉल किया और वे फोन पर रूबरू हुए। फिर क्या दिल खोलकर बातचीत का सिलसिला चला। इस दिलचस्प बातचीत के अंश मैं अपने ब्लाग पर शेयर कर रहा हूं जो अभी कहीं पर प्रकाशित नहीं हुए हैं। उम्मीद है आपको ये बातचीत पंसद आएगी।  


- निर्देशक और लेखक 
- 1993 से बालीवुड में सक्रिय 
- जन्म रायपुर छत्तीसगढ़ में 
- शुरुआती थिएटर: रायपुर व भिलाई 
- गैंगेस्टर्स, मर्डर, लाइफ इन मेट्रो, बर्फी जैसी चर्चित फिल्में 

रियलटी शो के हर मंच पर छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा...को गूंजायमान करने वाले मशहूर फिल्मकार अनुराग बसु का दिल हरदम छत्तीसगढ़ के लिए धड़कता है। बालीवुड की सिनेमाई जिंदगी में बेहद व्यस्त निर्देशक अनुराग बसु के दिल में छत्तीसगढ़ गहरे बसा हुआ है। वे इस बात को जोर देकर कहते हैं कि किसी छत्तीसगढिय़ा से कहीं ज्यादा मैं छत्तीसगढ़ी हूं। छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा पर मुझे गर्व है। रायपुर में पैदा हुआ हूं। मेरे पिताजी की पैदाईश यहीं की है। यहां पढ़ा, लिखा और बड़ा हुआ। पिता की नौकरी भिलाई स्टील प्लांट में थी। वहां मेरा काफी समय गुजरा। इन दोनों शहरों के थिएटर से गहरा नाता रहा। पंथी के मशहूर कलाकार स्व. देवदास बंजारे और अन्य लोक कलाकारों के साथ काम किया। थिएटर और कला की बारीकियों को यहीं से सीखा। बाद में मेरे पिता के सपने को पूरा करने मुंबई चला आया। उन्होंने मुंबई में कुछ ही सालों के संघर्ष में एक से बढ़कर एक फिल्में दी हैं। आस्कर के लिए नामित सर्वाधिक कामयाब फिल्म बर्फी और इससे पूर्व गैंगेस्टर्स, लाइफ इन ए मेट्रो जैसी अनेक फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं।
इतने वर्षों के बाद भी छत्तीसगढ़ जैसे उनका घर है। वे यहां का हालचाल एक स्थानीय निवासी की तरह जानते हैं। वे व्यस्तम क्षणों में भी चुपके से रायपुर और भिलाई में अपने मित्रों, परिचितों और परिजनों से मिलने चले आते हैं, जिसकी भनक बहुत कम लोगों को होती है। मध्यप्रदेश से अलग हुआ छत्तीसगढ़ उन्हें वर्तमान में थोड़ा विकसित जरूर लगता है। यह विकास केवल शहरों और उसके आसपास के गांवों में ही दिखता है। अभी भी दूरस्त ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में वे ठहराव सा महसूस करते हैं। वैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध छत्तीसगढ़ के पास कला व संस्कृति का खजाना है। यहां २२ किस्मों वाली फोक शैली की विरासत है। पंडवानी के दो-दो घराने हैं। इन्हें संजोए रखने की चुनौती है। फिल्मों और टेलीविजन के प्रभाव से सांस्कृति को नुकसान पहुंचा है। इसका असर केवल छत्तीसगढ़ के स्थानीय कलाकारों पर नहीं बल्कि अन्य राज्यों पर भी है। नई पीढ़ी को इससे जोडऩे की जरूरत है। बच्चे और युवाओं को नया रायपुर में जमीन के रेट मामूल हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि एशिया का इकलौता संगीत-कला विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ में है।
बहुत कुछ करना चाहता हूं...
अनुराग बसु छत्तीसगढ़ की प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने और उनके लिए कुछ करने की इच्छा रखते हैं। उनका कहना है कि आने वाले दिनों वक्त मिला और स्थानीय लोगों का साथ मिला तो निश्चित तौर पर राज्य के लिए बहुत कुछ कर पाऊंगा। यह तथ्य चर्चा में रहा है कि बर्फी का आइडिया भिलाई के ही एक मानसिक विकलांग स्कूल से लिया है। इसके अलावा भी फिल्म में कई ऐसे फ्रेम हैं, जहां अनुराग और उनका भिलाई जीवंत हो उठता है। मुस्कान मानसिक विकलांग विद्यालय एवं पुनर्वास केंद्र चल रहा है।

Tuesday, 12 June 2018

लालच का घर खाली... तीजन की जुबानी

छत्तीसगढ़ आइकॉन और पंडवानी लोक शैली की स्वर कोकिला पद्मभूषण तीजन बाई को अटैक आने की खबर फैली तो उनके चाहने वालों में जैसे खलबली मच गई। उनके गंभीर होने की खबरों का उन्होंने खुद ही पुरजोर तरीके से खंडन किया और जिंदादिली का परिचय देते हुए भिलाई के अस्पताल से कहा देखो मैं ठीक हूं.. बहरहाल तीजन बाई दीर्घायु हों हम सबकी शुभकामनाएं है। इस बीच मुझे याद आया कि मैंने कुछ महीने पहले ही उन से विशेष बातचीत की थी। हालांकि यह साक्षात्कार अभी तक कहीं भी प्रकाशित नहीं हुआ है। अपने ब्लॉग पर इसे आप सबके लिए शेयर कर रहा हूं। एक बार जरूर पढ़िएगा। आशा है पसंद आएगा। प्रतिक्रिया जरूर दीजिये।

जन्म- अप्रैल 1956
गांव- गनियरी भिलाई छत्तीसगढ़
विधा- पंडवानी लोक शैली गायन
सम्मान- पद्मभूषण- 2003
पद्मश्री- 1988
संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 1995

बचपन से कभी जिसने स्कूल-कालेज का मुंह नहीं देखा ऐसी पंडवानी की स्वर कोकिला तीजन बाई पर डाक्टेरेट जैसी उपाधियां न्यौछावर हैं। वह छत्तीगढ़ की अघोषित ब्रांड एम्बेसेडर हैं। पद्मभूषण से देश-विदेश में ख्याति के बावजूद उनको कभी धन दौलत जमा करने का मोह नहीं रहा। एक उपदेशक की तरह कहतीं हैं कि लालच करना अच्छी बात नहीं है क्योंकि लालच का घर खाली। उम्र के पांच दशक पूरा कर चुकीं तीजन बाई को जीवन में कोई शिकायत नहीं है। ठेठ छत्तीसगढ़ी में बातचीत करने वाली तीजन की छत्तीसगढ़ के लिए आईकान की तरह पहचान है।
उनकी दिली ख्वाईश है कि छत्तीसगढ़ विकास करे। सरकार और जनता के सामूहिक प्रयास से यह सबसे विकसित राज्य बने। पढ़ाई लिखाई में आगे बढ़ा है। विकास में सबकी सहभागिता हो और उसका लाभ भी उन्हें मिले तभी प्रदेश का असली विकास कहा जाएगा। कलाकारों को आगे बढऩे के पर्याप्त अवसर हैं। मेहनत करके सम्मान के वे हकदार हो सकते हैं। अपना काम करते चलो सम्मान मिले या न मिले। मेहनत रंग लाती है। मैंने जीवन में कमजोर परिस्थिति में कला के लिए अपना समर्पण किया। सबकुछ सहते हुए कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे बच्चों के बीच जाती हैं तो अक्सर प्रेरणा और आशीर्वाद स्वरूप कहती हैं कि जो जिस क्षेत्र में माहिर है, उसको जतन से पकड़े रहो। पीछे मुड़कर मत देखो। हिम्मत, लगन और अपनी प्रतिभा लगाकर पंडवानी गायन किया। उसी का नतीजा है कि आज इस मुकाम पर हैं। वे अब तक दो सौ से ज्यादा बच्चों को पंडवानी की ट्रेनिंग दे चुकी हैं। इनमें से कुछ सिद्धस्त कलाकार बनने की राह पर हैं।
तंबूरा थामने वाले हाथ कभी कंप्यूटर के की बोर्ड पर भले ही न चल पाए हों, लेकिन घर-परिवार के सब काम करती हैं। सब्जी बनाती हूं। चटनी बनाती हूं। धान मिंजाई व ओसाई भी कर लेती हूं। तीजनबाई साफगोई से कहती हैं- ईमानदारी से कहूं मैं आज भी गांव की हूं। आप ही बताएं मैं कहां से बड़ी हूं। बच्चों और बूढ़ों के बीच घुलमिलकर बैठ जाती हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ी खाना पसंद है। एक टाइम बासी रात में पका चावल पानी में डाल कर और टमामर की चटनी उनको बहुत पसंद है। देश विदेश घूम आई हैं, लेकिन स्वदेश से खास लगाव है। खासकर यहां की विविध कला और संस्कृति आकर्षित करने वाली है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात उन्हें अच्छी तरह याद है। उन्होंने बताया कि उन्होंने पंडवानी सुनी और इतनी अभिभूत हो गईं कि महाभारत का प्रसंग समाप्त होने के बाद इंदिराजी ने उनकी पीठ थपथपाई।