Wednesday, 16 June 2021

वे रहनुमा कहां हैं...



जब हर तरफ हो च़ीखें चिल्लाहट और पुकार 

आंखें नम और धडंकने बेदम

तब खुद को रहनुमा बताने वाले कहां हैं



जब पिछले दरवाजे से हो रहा मौत का सौदा

नंगा नाच करें ये जमाखोर ये सौदागर  

तब झूठी तसल्ली देने वाले रहनुमा कहां हैं 


कहते हैं जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य 

मरने के बाद जब दो गज जमीन भी नसीब न हो

खुद को इंसानियत का रहनुमा बताने वाले कहां हैं 


कतरा-कतरा आंसू के साथ छोड़ दिया उनको उन्हीं के हाल, 

सगे-संबंधी और भाई-मित्र सब मुख मोड जाएं असहाय, 

तब मुश्किल घड़ी में मदद का दंभ भरने वाले रहनुमा कहां हैं 


प्यार वफा सब बातें बनकर रह जाएं 

भगवान के डर से भी ज्यादा हो जाए मौत का खौफ 

तब अराजकता को खत्म करने वाले रहनुमा कहां हैं 


जो सबक पहली बार में न सीखे 

वह दोबारा और घातक होकर लौटे 

संकट से बचा पाने में हो पूरी तरह नाकाम

तब खुद को रहनुमा बताने वाले कहां हैं 


हर तरफ कंटीले जंगल उग आए हों 

पानी और हवा में घुला हो जहर

इस मुश्किल घड़ी से बचाने वाले वो रहनुमा कहां हैं  


                                                                               - गोविंद ठाकरे

                                                                            #Govindthakre @govindthakre

                                                                      facebook.com/govind.thakre.1/

Wednesday, 12 February 2020

80 वर्ष के सुनहरे युग का अंत



संकटग्रस्त पत्रकारिता के दौर में बड़ी और पीड़ादायक खबर आई। 80 वर्षों से देश-दुनिया को ध्वनितरंगों के जरिए जोडऩे वाला बीबीसी हिंदी रेडियो 31 जनवरी को खामोश हो गया। मशहूर ब्रॉडकास्ट्र्स के गले आखिरी प्रसारण के वक्त रुंधे हुए और देश के कोने-कोने में बीबीसी हिंदी रेडियो के लाखों चाहने वाले श्रोताओं का मन खिन्न और भारी। हम जिस प्रसारण को सुनते हुए बड़े हुए। हिंदी पत्रकारिता के एकलव्य छात्र की तरह तमाम गुर सीखे। जिस प्रसारण के साथ आवाज का जादू बिखेरने वाले बेहतरीन ब्राडकॉस्टर की तरह बनने का सपना संजोया। प्रसारण की ऐसी समृद्ध परंपरा का आखिर ऐसा अंत क्यों? सोचकर ही सदमा सा लगता है। मन में कितने ही सवाल उमड़-धुमड़ते रहेंगे। इसकी वजहों की आगे भी पड़ताल होती रहेगी, लेकिन बीबीसी का जादू हमेशा स्मृति का एक अभिन्न हिस्सा रहेगा। बीबीसी के ब्रॉडकास्टर हिंदी अखबारों के भी अच्छे संपादक साबित हुए हैं। उन्होंने बड़े पत्रकार और कलाकार के तौर पर भी ख्याति अर्जित की। इनमें ओमकारनाथ श्रीवास्तव, सईद जाफरी, पंकज पचौरी, रेहान फजल, राजेश जोशी, मुधकर उपाध्याय, संजीव श्रीवास्तव, अचला शर्मा, परवेज आलम जैसे अनेक बड़े नाम शामिल हैं। जब भी बीबीसी हिंदी का जिक्र छिड़ेगा उनकी आवाज कानों में गूंजती रहेगी। ऐसी भाषाई प्रस्तुती अंयत्र दुर्लभ है। मजाल है, हिंदी के प्रसारण में अनावश्यक रूप से ऊर्दू या अंग्रेजी शब्द ठूंस दिए जाएं। प्रसारकों द्वारा शब्द चयन की अद्भुत कला जादुई असर छोड़ती और बीबीसी हिंदी को सर्वोत्कृष्ट आसन पर बिठाती रही। मेरा सौभाग्य है कि बीबीसी के साथ शुरू हुई भाषाई यात्रा और समझ ग्रामीण परिवेश में भी भ्रष्ट होने से बची रही। बल्कि अनजाने में ही भाषाई अनुशासन और संस्कार व्यक्तित्व में आता चला गया। खुद के अंतराष्ट्रीय ज्ञान और समझ को बढ़ाने में बीबीसी का योगदान है। विज्ञान से लेकर कला और अर्थव्यवस्था, खेलकूद तक की हर अपडेट मेरे पास होती थी। गांव के स्कूल में जब 12वीं कक्षा में अध्ययनरत था। क्रिकेट मैच में एक खिलाड़ी के बारे में हटकर अपडेट खबर दी, तब शिक्षक ने खबरों संबंधी मेरे ज्ञान की पूरी क्लास में यह कहकर सराहा कि जिसके घर टीवी नहीं उसके पास इस तरह की अपेडट होना बड़ी बात है। उन दिनों कुछ ही घरों में टीवी होता था। मुझे यह सराहना बीबीसी के कारण ही मिली, उन्होंने मुझे सबसे अपेडट रहने वाला छात्र घोषित किया। मेरे भीतर जगा यही अत्मविश्वास मुझे पत्रकारिता की तरफ मोड़ता चाला। पत्रकार बनने की प्रेरणा जगाई। इसके बाद तो बीबीसी सुनने का जैसे जुनून सा छा गया। सुनकर हर एक खबर को लिखने की आदत पड़ गई। अलग-अलग सेग्मेंट की खबरें को नोट करना और सुनकर उनका विश्लेषण करना तभी शुरू हो गया था। अनजाने में पत्रकारिता के सफर पर चला पड़ा। देश-दुनिया की प्रत्येक अपडेट के लिए रेडियो को चिपटाए साथ घूमने की आदत हो गई। रेडियो सुनने की धुन में खाने-पीने तक की सुध न रहती। रेडियो सुनते-सुनते कोशिश ऐसी रंग लाई कि चार-पांच वर्षों में आकाशवाणी के स्थानीय केंद्र में बोलने का काम मिल गया। छोटे शहर में ब्रॉडकास्टर की छोटी-मोटी भूमिका में आना मेरे लिए बड़ी बात थी। बस क्या था जैसे में मेरे अरमानों को पंख मिल गए। ध्वनि तरंगों पर सवार होकर उड़ान भरने लगा। क्षमता से अधिक काम करने की आदत हो गई। गांव के लड़के ने डगमगाते कदमों के साथ जो सफर शुरू किया वह अब तक अनवरत जारी है। प्रसारक से अखबार की दुनिया में जगह बनाने तक की उबड़-खाबड़ यात्रा मेरे लिए किसी करिश्मे से कम नहीं रही। अगर मैं संक्षेप में कहूं तो बीबीसी ने जो मेरे भीतर पत्रकारिता का बीजारोपण किया वह आज अंकुरित होकर पुष्पित-पल्लवित होने की स्थिति में पहुंच गया। बीबीसी सुनने की प्रेरणा को लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा है। अस्सी और नब्बे के दशक में गांवों में सूचना पहुंचाने का जरिया एक मात्र रेडियो ही होता था। तब सूचना क्रांति का इतना बोलबाला नहीं था। रेडियो भी कुछ ही घरों में होता था। उसमें भी खबरों की रुचि रखने वाले एक ही दो लोग होते। जैसी ही बड़ी खबर या समाचार रेडियो पर आती। दिलचस्पी रखने वाले चौक, चौराहे-चौपाल या जहां भी एक-दो लोग जमा होते वहीं पर खबरों का जिक्र छेड़ देते। लोग ध्यान देकर सुनने। वह यह भी बताते थे कि यह खबर विश्वनीय माध्यम बीबीसी ने बताई है। नई और ताजी खबरों पर चर्चा के दौरान उस व्यक्ति की भीड़ में धाक जम जाती थी। हमारे बाल मन में इसी की छाप पड़ गई और होश संभालते ही हम भी बीबीसी सुनने लगे। श्रेष्ठ खबरों और पत्रकारिता से नाता जुड़ता चला गया। बीबीसी में वर्षों तक पत्रों के जरिए जीवंत संपर्क भी रहा। बीबीसी ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए। वे आज भी अभिन्न रूप से जुड़े हैं। उनमें कुछ को जब मैंने बीबीसी हिंदी रेडियो के आखिरी प्रसारण की सूचना तो उन्होंने अपनी बहुत ही भावनात्मक प्रतिक्रिया दी।
(बिल्कुल सही ठाकरे जी, हमें बहुत दुख हुआ, हमारे ज्ञान को दुनिया के सन्दर्भ में विस्तार देने में बीबीसी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज वाइस आफ अमेरिका और रेडियो डोइचे वैले जैसे महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी रेडियो प्रसारण भी बंद हो चुके है। अब की इंटरनेट संचार क्रांति भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाले रेडियो और टेलिविजन प्रसारणों को छिन चुकी है। अब सबके पास अलग-अलग अवसर उपलब्ध है। कोई ऑनलाइन गाने सुन रहा है तो उसी समय कोई किसी दूसरे स्टेशन से समाचार सुन रहा है। कहां गये वो दिन जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम सब एक साथ एक ही रेडियो प्रसारण को सुना करते थे।और पत्रों के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान किया करते थे।) हुलासराम कटरे बालाघाट
हाँ,  गोविंद भाई  !!!!
थोड़ा बचपन और युवा अवस्था बीबीसी हिंदी के साथ बीती। बहुत ही कड़े मन से स्वीकार करना पड़ रहा है कि बीबीसी हिंदी अब नहीं सुन पाएँगे। सत्येंद्र कुमार सहायक प्राध्यापक सिवनी कॉलेज



                                                                                                                      - गोविंद ठाकरे

Friday, 7 February 2020

ऑब्जर्वर थ्योरी

विद्वान आमतौर पर पत्रकारिता को कला संकाय मानते हैं। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता स्वीकार करते हैं। यहां पत्रकारिता के वैज्ञानिक पहलू पर विस्तार से विचार करेंगे। पहले तो समझ लें कि विज्ञान का मूल मंतव्य क्या है? आखिर में किसे विज्ञान मानें और किसे कला संकाय कहें। विशेषज्ञों ने विज्ञान और कला के भेद को बड़ी स्पष्टता रेखांकित किया है, लेकिन विज्ञान और कला के बारे में आम जीवन में उतनी सहज समझ नहीं बन पाती। यह दिलचस्प है कि कोई विचार या अवधारणा तब तक वैज्ञानिक नहीं मानी जाती जब तक कि उसे किसी गणितीय सूत्र के माध्यम से सिद्ध न किया गया हो। एक बात तय है कि गणितीय फार्मूले के सांचे में ढाले बिना कोई वैज्ञानिक विचार साइंस की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता। इन्हें वैज्ञानिक अवधारणाओं तक सीमित किया जाता हैं। इसका आशय है कि कोई विषय पूरी तरह वैज्ञानिक तभी होता है जब तक उसका कोई गणितीय पहलू सामने न आ जाए। स्पष्ट है कि इस परिभाषा के दायरे में पत्रकारिता नहीं आती। विज्ञान इसलिए नहीं है, क्योंकि इसकी थ्योरी गणितीय फार्मूले में अब तक लाई ही नहीं जा सकी है। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता पर संदेह नहीं है। पत्रकारिता की अवधारणा के स्तर पर वैज्ञानिकता निर्विवादित है। जनसंचार और पत्रकारिता में कई उल्लेखनीय सिद्धांत पहले खोजे जा चुके हैं, लेकिन यहां पत्रकारिता की एक नई वैज्ञानिक अवधारणा की संभावनाओं पर विचार करते हैं। ऐसा कोई थ्योरी शामिल की जा सकती है, जो पूरी तरह साइंस न हो फिर भी विज्ञान की तरह काफी हद तक परिणाम दे। थ्योरी पर विचार करने से पूर्व भौतिकी दुनिया के चमत्कार क्वांटम थ्योरी की बात करते हैं। विज्ञान के अध्येता जानते हैं, क्वांटम फिजिक्स कितनी जटिल और अबूझ पहेली है। कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल नेटवर्क इसी फिजिक्स की दुनिया के चमत्कार हैं। दरअसल क्वाटंम थ्योरी कहती है कि अत्यंत सुक्ष्म कणों की दुनिया पार्टिकल लेवल पर हर चीज एक साथ वेब और पार्टिकल दोनों नेचर में एक साथ एक्जिस्ट करती है। यानी एक साथ वेब और पार्टिकल हो सकती है। यंग के डबल स्लिट प्रयोग में सिद्ध किया जा चुका है कि इलेक्ट्रान का डिवेल नेचर पाया जाता है। यानी वह एक ही समय में पार्टिकल और वेब की तरह व्यवहार करता है। पत्रकारिता में इस थ्योरी का क्या लेना देना? डबल स्लिट प्रयोग का चमत्कार ये है कि जब पार्टिकल को कोई नहीं देख रहा होता है तो वह वेब नेचर प्रदर्शित करता है, वहीं जब उसे कोई देख (आब्र्जव) रहा होता है तो शद्द पार्टिकल की तरह व्यवहार करता है। यहां आब्र्जवर की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आब्र्जवर वह जादूगर है जो पूरा स्वप्न लोक हकीकत में बदल देता है। किसी के देखने मात्र का यह असर होता है कि वेब (वर्चुल) से पार्टिकल(रियल) में तब्दील हो जाता है। यह जटिल बात असानी से गले नहीं उतरती। चलिए अब इसे और आसान बनाने की कोशिश करते हैं। क्वांटम थ्योरी को आम जीवन में कुछ इस तरह महसूस किया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के सामने उसका व्यहार कुछ होता है और व्यक्तिगत व्यवहार कुछ और ही। शायद अब भी इसे समझना मुश्किल है। इसे और आसान बनाने की कोशिश करते हैं। जब कोई नितांत व्यक्तिगत होता है यानी कोई उसे देख नहीं रहा होता है तब उसका व्यहार कैसा होता है? और जब उसे यह पता लग जाता है कि देख रहा है तो उसका व्यवहार तत्काल बदल जाता है। यानी आप अनौपचारिक से औपचारिक या वर्चुवल से रियल हो जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह दूसरे की नजर में पद प्रतिष्ठा और पहचान के आधार पर दिखना चाहता है। यथायोग्य वेशभूषा, भाषा-शैली और चाल-ढाल आदि का प्रदर्शन करता है। लेकिन जब वह नितांत निजी क्षणों को जी रहा होता है तो उसका बिल्कुल उलट व्यवहार होता है। गायक भले न हो फिर भी अपनी रौव(तरंग) में बहता हुआ बाथरूम सिंगर बन जाता है। एकांत के क्षणों में अपनी पहचान को एक तरफ रखकर तरंगित यानी वेब की तरह झूमने गाने और तनाव भुलाने का उपक्रम करता है। कई बार तो सेंसलेस होने में गुरेज नहीं होता। इसे हम जिदंगी का डिवेल नेचर कह सकते हैं। यानी किसी सुक्ष्म दुनिया की तरह कभी पार्टिकल तो कभी वेब प्रकृति को धारण कर लेना। सवाल है कि इसमें वेब और पार्टिकल क्या है? तो जाहिर है जब हम पर कोई नजर नहीं रख रहा होता तो एक तरंग की रौ में बहते चलते हैं। जैसे कि बाथरूम की मस्ती, बाथरूम सिंगर या नितांत निजी क्षणों की मस्ती आनंद की स्थिति। इसे ही हम व्यक्ति का वेब नेचर मान सकते हैं। लगता है जैसे हम किसी वर्चुल दुनिया का हिस्सा हैं। एक  उमंग वाली तरंग में बहते चलते हैं। लेकिन जैसे ही आप आफिस पहुंचते हैं अपनी वह पहचान के साथ औपचारिक स्थिति में शूट टाई, स्कूल ड्रेस, बोलने-चालने का लहजा बिल्कुल ही बदल जाता। अपनी स्थानीय बोली को भूलकर औपचारिक भाषा यानी हिंदी या अंग्रेजी में संवाद करने लगता है। यानी आप पूरी तरह रियल दुनिया का हिस्सा हो जाते हैं। अर्थात व्यक्ति का व्यवहार भी क्वांटम फिजिक्स की तरह आब्र्जवर पर बहुत हद तक निर्भर या प्रभावित होता है। आब्र्जवर ऐसी कड़ी है जो हमें वर्चुव से रियल स्थिति में लाने के लिए जिम्मेदार है। अब सवाल उठता है कि इसे पत्रकारिता में कैसे उपयोग किया जा सकता है। यह जनना भी बहुत दिलचस्प होगा कि दरअसल एक पत्रकार आब्र्जवर की भूमिका में होता है, यह तो सभी जानते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है। जैसे कि जब तक किसी ऑफिस या फाइल में कोई भ्रष्टाचार चल रहा है तब वह खबर की दुनिया में वह एक वर्चुअल स्थिति है, लेकिन जैसे पत्रकार नाम के आब्र्जवर के संज्ञान में आता है वह वर्चुअल से रियल में होता है। वह एक भ्रष्टाचार की घटना के रूप में दुनिया के सामने खबर बनकर आ जाती है। इस प्रक्रिया में आब्र्जवर थ्योरी बेहद मजबूती से उभरती है। पत्रकारिता में ऑब्जर्वेशन अहम है। पत्रकार जितना अच्छा ऑब्जर्वर होगा उतना ही उसकी पत्रकारिता सशक्त तरीके से लोगों के समक्ष प्रस्तुत होगी। ऑब्जर्वेशन दरअसल तथ्यों की खोज की दृष्टि है। यह जितनी पैनी होगी दृष्टि उतनी अच्छी सूचनाओं को पकड़ लेगी और हिला देने वाली खबर लोगों के सामने होगी। जैसे विकीलिक्स के पत्रकारों द्वारा धमकाकेदार खुलासे, जिसमें दुनिया की बड़ी हस्तियों के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ। स्टिंग ऑपरेशन में आब्र्जवर (पत्रकार) की पहचान को छिपाकर बड़े कारनामे उजागर किए जाते रहे हैं। तहलका स्टिंग ऑपरेशन, ऑपरेशन दुर्योधन आदि चिर्चित हुए हैं।   
मूल सूचना खोज बड़ी चुनौती
किसी घटनाक्रम में मूल सूचना का चयन सबसे कठिन प्रक्रिया है। मूल सूचना की पहचान का पहला चरण रिपोर्टिंग है। रिपोर्टर के लिए मूल सूचना की पहचान खोजबीन करने जैसा काम है। यह वैसा ही है जैसे कूड़े में से सुई ढूंढ़ निकालना। इसका एक तरीका है सुई की चमक को अगर रिपोर्टर की आंख पहचान ले तो समझो काम आसान हो गया। इसे ही हम विजन, दृष्टि या नजरिया कहते हैं। किसी पत्रकार के पास यह दृष्टि जितनी पैनी होगी, वह उतना ही बड़ा और तेज पत्रकार माना जाएगा। यह रोजमर्रा के कामकाज में पत्रकार को आए दिन फेस करना होता है।
मूल सूचना की पहचान कैसे की जाए है बड़ी चुनौती है। इसके कुछ विशेषताएं तय की जा सकती हैं
-जिस सूचना में लोगों की सबसे ज्यादा रूचि हो
-सूचना स्थानीय स्तर पर कितना जुड़ाव या लगाव पैदा कर सकती
-जो मीडियम के हिसाब से चर्चा में आने लायक हो जैसे प्रिंट या इलेक्ट्रानिक में
इनके अलावा भी कई ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके माध्यम से आसान तरीके से मूल सूचना की पहचान की जा सकती है।
- सर्वत्र बिखरी सूचनाओं के बीच मूल सूचना की खोज का अगला कदम है। जहां उसे फेस देने का काम होता है। यह समाचार गठन की शीर्ष प्रक्रिया भी मानी जाती है।

                                                                                                       - गोविंद ठाकरे

Wednesday, 30 January 2019

हर लिमिट की हाईट पर भारतीय





भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में इतनी शक्ति है कि अवधारणाएं, ज्ञान और दर्शन मनुष्य समाज हर समस्या के समाधान में सक्षम है। यह सूत्रात्मक और काल के परे उपयोगी मानी जाती है। एक विचार मन में आता है कि संचार क्रांति के जमाने में जब पूरा विश्व प्राचीन वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा में रूपांतरित होता दिख रहा है, जो कि तकनीक के माध्यम से संभव हो रहा है। भारतीय अध्यात्म, दर्शन इस बात को पूरी तरह से सूत्र शैली में समझाने में सक्षम है कि आज का विज्ञान और इंजीनियरिंग दोनों के मूल में हमारे विचार हमारी प्राचीन अवधारणाएं बहुत गहरे रूप में विद्यमान है। यह बात बार-बार रिसर्च अनुसंधान में सिद्ध हो चुकी है। इसे और आसानी से समझा जा सकता है कि दुनिया में शोध और अनुसंधान दो श्रेणियों में चल रहे हैं। इनके चरम पर पहुंचकर देखा जाए तो यह समझ में आता है कि हमारी वैज्ञानिक दुनिया में हम जिस ब्रह्मांड में टिके हुए हैं, जो पृथ्वी हमारा रहवास हैं, वैसी दुनिया क्या दूसरे ग्रहों में हो सकती है? यह हमारी जिज्ञासा और खोज का विषय सतत् बना हुआ है। सुक्ष्म से लेकर बड़े पिंडों की खोज में अंतरिक्ष विज्ञान विस्तार और विस्तार पाता हुआ अनंत को नापने की ओर अग्रसर है। दूसरी ओर सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म की यात्रा करता हुआ विज्ञान, सूक्ष्म से विराट की यात्रा को जोडऩे का प्रयास कर रहा है। सूक्ष्म दुनिया आज एक नियंता की भूमिका में आ चुकी है। जैसे पार्टिकल की अजब-गजब दुनिया। हालांकि इनके आचरण-व्यवहार को लेकर वैज्ञानिक दुनिया अभी बंटी हुई दिखती है, लेकिन एक बात पर लगभग सहमत होता दिखता है कि किसी पार्टिकल का वेब नेचर भी हो सकता है। जो क्वांटम थ्योरी का मूल आधार है। इसे विरोधी खेमे के वैज्ञानिक भी पूरी तरह नकार नहीं पाए हैं। आशय इतना है कि वैज्ञानिक जगत भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि यह जगत मूल रूप से पार्टिकल नेचर का है या फिर वेब। 
सूक्ष्म कणों की खोज लगातार जारी है, सूक्ष्मतम कण अर्थात अणु, परमाणु, न्यूट्रॉन, प्रोटॉन इलेक्ट्रॉन और इनसे भी सुक्ष्म कणों की दुनिया में अब तक के आखिरी कण की खोज की जा चुकी है, जिसे गॉड पार्टिकल कहते हैं। इसे कुछ वर्ष पहले जिनेवा में हुए महाप्रयोग के माध्यम से खोजा गया है। वह गॉड पार्टिकल, जिसका नाम भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस पर रखा गया है बोसॉन। यह दर्शाता है कि भारतीय मूल के वैज्ञानिक जो अपनी प्रतिभा के बल पर दुनिया को नए नए प्रयोगों से अवगत कराते आए हैं। यह हैरान करने वाली बात है कि वैज्ञानिक जगत के शीर्ष पर विराजित आइंस्टिन और मैक्स प्लांट के नाम पर गॉड पार्टिकल का नाम रखने के बजाए भारतीय मूल के वैज्ञानिक बोस पर रखा गया। इससे एक भारतीय वैज्ञानिक और प्रतिभा की हैसियत का पता चलता है। इतना ही नहीं पूर्व में विशालयकाय पिंडों की चर्चा की। ब्रह्मांड में विशायलकाय पिंडों के गणना या आंकलन की बात हो तो इसे भी दुनिया ने चंद्रशेखर लिमिट संबोधित किया है। भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता खगोल वैज्ञानिक सुब्रह्मणियम चंद्रशेखर के नाम पर इस लिमिट का नाम रखा गया है। स्पष्ट है कि चाहे सुक्ष्म जगत की सुक्ष्मतम लिमिट हो या विशाल ब्रह्मांड की अधितम लिमिट सभी पर भारतीय प्रतिभा का सिक्का चलता है। यह दबदबा है भारतीय प्रतिभा का। सक्ष्म और विशाल दानों की सीमा रेखा पर भारतीय वैज्ञानिकों को सम्मान देखकर दुनियाभर ने भारतीय प्रतिभा का लोहा माना है, लेकिन भारत में ज्यादातर लोग उनसे परिचित नहीं हैं। न स्कूलों में न कभी कॉलेजों में उनके नाम गर्व से लिये जाते हैं। हमारी राजनीतिक पार्टियों को इसकी कोई चिंता नहीं है। हमें आपस में लड़ाने से उनको फुर्सत नहीं मिलती है। राजनीतिक रोटियां सेंकने के अलावा उनके पास और कोई काम नहीं है। यह बड़े दुर्भाग्य से कहना पड़ता है दूसरी तरफ  हमारे अध्यात्म और दर्शन में दुनिया को राह दिखाई है, लेकिन आज उनके उत्तराधिकारी भटके हुए हैं। वह भी सामाजिक विभेद और धर्म पंथों के प्रवर्तक बने हुए हैं। इसी परिणाम है कि मानव-मानव में भेद मानव-मानव में लड़ाई प्रतिभाओं को कमजोर या हतोत्साहित करने वाला प्रयास ही कहा जाएगा। आज हम भारत में योग जैसी शक्तियों को व्यवसायिक और प्रायोगिक कसौटी पर कस चुके हैं, लेकिन हम इससे इतर जो प्रतिभा है, जो ज्ञान दर्शन है, उससे सीखकर नया करने के लिए शायद उतने तैयार नहीं हैं, जो देश से बाहर जाकर हमारे लोग करिश्मा कर गुजरते हैं। जिन भारतीय प्रतिभाओं के दम पर सूक्ष्म और विराट दुनिया को एक सूत्र में बांधने की तकनीक खोज निकाली गई है और उनके दोनों छोरों पर भारतीय वैज्ञानिक अवस्थित हैं। विद्यमान हैं। इस दुनिया को एक तरह से भारतीय से भारतीय तक छोर द्वारा नापा जा सकता है। इस बात को दुनिया अच्छी तरह समझती है, लेकिन हम दीया तले अंधेरा, गुमनाम मानसिक रूप से पिछड़ते जा रहे हैं। हम सबको सोचना पड़ेगा हमारी दुर्दशा क्यों है? हम इससे कैसे बाहर आ सकते हैं। इस पर बार-बार नहीं हजार बार सोचना पड़ेगा। तभी हम हर लिमिट की हाईट पर भारतीय वाली पंक्ति को सार्थक कर पाएंगे।


Saturday, 25 August 2018

लोकतंत्र के प्रहरी


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारत के महान नेताओं में शुमार हैं। उनके निधन पर एक जननेता के प्रति जो सम्मान प्रकट करना चाहिए उससे बढ़कर देश ने उन्हें नमन किया। क्या पक्ष, क्या विपक्ष उनके सम्मोहक व्यक्तित्व और शीर्ष राजनीतिक कद के सभी कायल हैं। संवेदनशील कवि, प्रखर पत्रकार, बेदाग सियासी चेहरा जैसी तमाम खूबियों वाले बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी अटलजी के योगदान को सभी ने अपने-अपने तरीके से स्मरण किया। लेकिन लोकतंत्र की कसौटी पर अटलजी कितने खरे? इस पर विचार ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए। क्योंकि मौजूदा भाजपा सरकार का चाल-चरित्र अटलजी वाला तो कतई नहीं कहा जा सकता। भाजपा अपने पितृ पुरुष के लोकतान्त्रिक आचरण पर कितना चल पा रही यह बहस का विषय बना हुआ है। यह जरूरी है कि लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अटलजी का विचारण करते हुए उनके महत्वपूर्ण भाषणों के दो लफ्जों पर फोकस करना होगा। एक संख्याबल के सामने हमेशा शीष झुकाना और दूसरा बहुदलीय व्यवस्था का सम्मान। 13 दिन और 13 महीने की सरकार छोड़ते समय संसद में दिए ऐतिहासिक भाषण में हताशा नहीं बल्कि दोनों के प्रति सम्मान और इन्हीं के बल पर फिर जीतकर आऊंगा... उम्मीद का गहरा भाव केंद्रित रहा। वास्तव में ये दोनों पहलू लोकतंत्रीय व्यवस्था की रीढ़ हैं। इन्हें निकाल दिया जाए तो अमेरिका या दूसरे कई देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था के ड्राबैक सामने जा जाते हैं। वहां दो दलीय व्यवस्था है। ऐसे में वहां की जनता के पास दो ही विकल्प हैं। ये दल या ओ दल। कहने का आशय यह है कि लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उसके नागरिकों में निहीत होनी चाहिए, वह गायब है।
इस मामले में अटलजी भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के नायाब नेता साबित हुए, जिन्होंने अपनी राजनीतिक चेतना के मूल में संख्याबल और बहुदलीय व्यवस्था का न केवल दिल से सम्मान किया बल्कि इनसे ही राजनीतिक समन्वय का मंत्र भी दिया। आजादी के बाद पहले ऐसे चमत्कारिक नेतृत्व का ओहदा पाने में कामयाब हुए जिसमें 24 दलों के भानुमति के कुनबे वाली सरकार को पूरे पांच साल चालने का करिश्मा कर दिखाया। लोकतंत्र भारतीयता के मूल में है। इस देश की रक्तवाहिनियों में प्राचीन काल से संचरित है।

अगली कड़ी में जारी...

Friday, 20 July 2018

मुक्तिबोध : जन्मशती, समीक्षा और संस्मरण

गजानन माधव मुक्तिबोध
जन्म- 13 नवम्बर 1917
निधन- 11 सितम्बर 1964
जन्म स्थान- श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कुछ प्रमुख कृतियाँ
चांद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी (कहानी संग्रह), कामायनी:एक पुनर्विचार, नयी कविता का आत्मसंघर्ष, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र(आखिर रचना क्यों), समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी (आलोचनात्मक कृतियाँ) एवं भारत:इतिहास और संस्कृति।
मुक्तिबोध का विद्यार्थी होने के नाते उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की समीक्षा करने वालों पर मेरी हमेशा जिज्ञासादृष्टि रही है। वैसे भी मुक्तिबोध को पूरी गहराई और शिद्दत से स्मरण करने का मौका भी है, दस्तूर भी। यह उनकी जन्मशती का खास अवसर जो है। साहित्य में उनके अतुलनीय योगदान को देशभर में याद किया गया। रायपुर से लेकर दिल्ली तक यह सिलसिला चला। जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि जीते-जी जिस कवि को नाम और मुकाम हासिल नहीं हुआ, मरणोपंरात हिंदी ही नहीं ऊर्दू साहित्य की अध्येता जमात तक उनकी अनूठी रचनाप्रक्रिया, फंतासी, कथ्य, शैली पर व्याख्यानमाला कर रही है। बड़ी तादाद में युवा पीढ़ी भी उनके अवदान पर चर्चा में शामिल हो रही है। यह कोई मामूली बात नहीं है। पीढिय़ां बदलते ही अक्सर साहित्यकार भुला दिए जाते हैं, हालांकि मुझे मलाल है, इस दौरान किसी भी बड़े आयोजन में शरीक होने का सौभाग्य नहीं मिला। उनकी स्मृति में साहित्यिक पत्रिकाओं में खूब लिखा गया। सोशल मीडिया पर भी उनके शब्दों का अनमोल खजाना चर्चा में रहा। कुछ महत्वपूर्ण आयोजन के वीडियो अंश मेरे हाथ लगे। ये मेरे लिए किसी नायाब तोहफे से कम नहीं। इनमें मुक्बिोध के परिचित रचनाकार, जिन्होंने उनके साथ लंबा वक्त बिताया और वे भी, जो उन्हें व्यक्गित रूप से नहीं जानते थे, रचनाओं के माध्यम से मुक्तिबोध के व्यक्तित्व और कृतित्व को गहरी समझ के साथ इन विद्वानों ने उनके साहित्य की समीक्षा की और संस्मरण व्याख्यान भी दिए। मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से लेकर रायपुर तक तमाम जगह पर आयोजित उनके जन्मशती समारोह में घूम-घूमकर मुक्तिबोध के जीवन के हर पहलू को सामने रखा। वैसे तो मैं मुक्तिबोध जी के परिवार से निकटता से जुड़ा हूं, फिर भी इस दौरान उनके जीवन और उनकी रचनाओं के बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिला। यह एक जिज्ञासु में नई दृष्टि को जगाने जैसा अहसास है।
व्यक्तिगत जीवन के सहयात्री नरेश सक्सेना उन साहित्यकारों में हैं, जिन्हें मुक्तिबोध का सान्निध्य मिला। नरेशजी के अंतरंग संस्मरण व्याख्यान साहित्य, संगीत और ज्ञान-विज्ञान के समंदर में एकसाथ गोता लगाने जैसा था। उनसे मुक्तिबोध की समकालीन वैश्विक दृष्टि के बारे में जानकर चकित हुए बिना नहीं रह सका। मुक्तिबोध के साहित्य में क्या बौद्धिक क्या भावात्मक, सबकुछ एक झरने की तरह फूटने लगता है। नरेशजी द्वारा मुक्तिबोध के साथ बिताए क्षणों को याद करना, कभी अनुभूतिजन्य उनके नैन-नक्श की प्रतिकृति स्मृति पटल पर कौंधने लगती तो कभी उनकी रचनाओं में अजब-गजब फंतासी किसी चलचित्र की तरह उभरने लगती। मुक्तिबोध का छत्तीसगढ़ के रायपुर और राजनांदगांव के अलावा मध्यप्रदेश के जबलपुर में भी काफी समय गुजरा है। इस पर नरेशजी ने संभवतः किताब भी लिखी भी हो। इन्हें याद करते हुए नरेशजी का पूरा व्याख्यान मुक्तिबोध की विषम परिस्थिति, ज्ञान-चेतना और कलाबोध पर केंद्रित रहा। इसमें उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बताया कि मुक्तिबोध दरअसल नई कविता की दूसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्होंने अपने दौर की केंद्रीय धुरी बनकर एक विराट आभामंडल बना लिया था। उनसे समकालीन भी जबरदस्त तरीके से प्रभावित हुए। चाहे वह विनोद कुमार शुक्ल हों या खुद नरेश सक्सेना। सभी समकालीनों की रचनाओं में न सिर्फ उनकी काव्य शब्दावली, बल्कि चिंतन भी मुक्तिबोधमय हो गया। यह सब नई कविता की पहली पीढ़ी से बिलकुल पृथक था। पहली पीढ़ी ज्यादातर उत्तरप्रदेश के रचनाकारों की थी। दूसरी पीढ़ी समूची मध्यप्रदेश से ही है। फूल, पक्षी, चिडिय़ा, नदी, पहाड़ ये कुछ ऐसे रंग हैं, जिनसे रचनाएं नई कविता का रूप ले रही थीं, लेकिन मुक्तिबोध की साहित्यिक धारा में बिलकुल अलग शब्दावली दूसरी पीढ़ी के साथ उभर कर आई। यहां कविताओं में मरे हुए पक्षी, कटे हुए सिर जैसे शब्द चित्र दिखाई देते हैं। 'अठन्नी के सिक्के पर सिर कटा फोटो... यह कविता में एक अभिनव प्रयोग था। जबलपुर के मलय की कविता में 'सड़क चलती हुई नदी में जा गिरी... अन्य कविताओं में भी ऐसी पक्तियों की आवृति मिलती है।व्याख्यान का अगला पहलू मुक्तिबोध के साहित्य में संगीतात्मकता का था। रचनाएं दादरा, कहरवा, ठुमरी जैसी तालों से निबद्ध हैं। अंधेरे में इन्हें शास्त्रीय रागों में बखूबी गाया जा सकता है। उनकी कविताओं के साथ संगीतमय प्रयोग संभवत: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में ज्यादा हुआ है। जेएनयू इस वजह से भी एक अलग तरह के शैक्षणिक संस्थान के तौर पर जाना जाता है। किसी भी काम को उसकी गहराई जाकर अध्ययन-चिंतन का हिस्सा बना लेना। यहां की अनुसंधान प्रवृत्ति में हमेशा से अभिन्न रहा है।मुक्तिबोध की समझ का एक अन्य अद्भुत आयाम उनकी विज्ञान में गहरी समझ भी है। विज्ञान की अवधारणाओं को कविता में पिरोकर बार-बार संवेदनात्मक प्रतिक्रिया और सीख देते हैं। 'एक चौराहे से सौ राहें खुलती हैं, और मैं उन सब पर चल पड़ता हूं...ऐसी तमाम पंक्तियां उनकी कविताओं में मिलती हैं। तत्कालीन समय में न्यूटन, आइंस्टाइन और स्टीफन हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में परस्पर विरोधाभास का उभरना। खासकर आइंस्टाइन और हॉकिन्स की वैज्ञानिक अवधारणाओं में गहरे मतभेद के साथ विवाद का उभर आना। मुक्तिबोध को उस वक्त विज्ञान की परत का गहनबोध था। विवाद का पटाक्षेप करते हुए आखिरकार वैज्ञानिकों ने यूनिफाइड थ्योरी की अवधारणा को अपनाया। सूक्ष्म जगत में कणों और फोटोन (तरंग) दोनों के अस्तित्व को यूनिफाइड थ्योरी के रूप में मान्यता दी गई। इस वैज्ञानिक समझ की झलक मुक्तिबोध की रचनाओं में साफ तौर पर दिखाई पड़ती हैं।
दूसरी ओर उन्हें व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानने वाले रचनाकारों में मशहूर हास्य कवि अशोक चक्रधर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे उत्तरप्रदेश की साहित्यिक गोष्ठियों में मुक्तिबोध की रचनाप्रक्रिया को जैसे अलहदा अंदाज में प्रस्तुत करने बीड़ा उठाए हुए हैं। वे एक नई धारा की नई रचना प्रक्रिया वाली अवधारणा को न केवल विद्यार्थियों-शोधार्थियों, बल्कि आमजन के बीच में बड़ी सहजता पहुंचाने में पूरी तरह से कामयाब हुए हैं। चक्रधरजी का योगदान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने खासकर ऊर्दू अदब के शायर और लेखकों के बीच मुक्तिबोध को सरल-सहज ढंग से पहुंचाया है, पहुंचा रहे हैं। उनकी नजर में मुक्तिबोध ऐसे रचनाकार हैं, जो दुनियाभर में सबसे अलग और अगुवा हैं। संस्कृत काव्य सिद्धांतों में रस, वक्रोक्ति या अलंकर जैसे अनेक संप्रदाय हों या पश्चिम के वितंडावादी, विरेचन, अभिव्यंजना या अस्तित्ववाद इन सबसे मुक्तिबोध का मुकाम बहुत अलहदा है। मुक्तिबोध के पहले साहित्य की वैतरणी या तो भावधारा या बुद्धि पक्ष की प्रबलता के साथ अलग-अलग बहती रहीं। दोनों के मिलन की संभावना पर कभी किसी ने बात नहीं की। मुक्तिबोध पहले रचनाकार हैं, जिन्होंने दो विपरीत धु्रवों के काव्य सिद्धांतों को एक साथ मिलाकर नई काव्य अवधारणा को जन्म दिया। उनकी रचनाओं को पढऩे समझने से पहले ऊबड़-खाबड़ और जटिल लगने वाली लगने वाली कविताओं का मंतव्य समझना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध मिलने-जुलने वालों से बेबाक तरीके से कहते थे-पहले अपनी पॉलिटिक्स ऑफ़ करो पार्टनर...। अशोक चक्रधर कहते हैं, मुक्तिबोध ने गद्य में रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया है। (वैविध्यपूर्ण जीवन के प्रति आत्मचेतस व्यक्ति की संवेदनात्मक प्रतिक्रिया ही कविता रचना या कला होती है)। आशय यह है कि विविधताओं से भरे जीवन की गहरी समझ रखने वाला आत्मचेतस व्यक्ति जो बौद्धिकता से लबरेज है, वह जब संवेदनात्मक प्रतिक्रिया करता है तो कला या रचना बन जाती है। यह प्रतिक्रिया रूखी-सूखी नहीं, बल्कि भावात्मक, संवेदनात्मक होना जरूरी है। यह काव्य अवधारणा या परिभाषा अद्भुत है। मुक्तिबोध ने इसी रचना प्रक्रिया को आधार बनाकर कविताएं रची हैं। धीरे-धीरे चढ़ती खुमारी की तरह मुक्तिबोध लोकप्रियता के शिखर पर हैं। उनकी जन्मशती के अवसर पर बॉलीवुड के कलाकार उनकी रचनाओं का पाठ कर रहे हैं। उनकी बड़ी और लंबी कविता 'भूल गलती, अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस आदि का मंचन रंगमंच के कलाकार कर रहे हैं। अपने समय को संवेदना की दृष्टि से देखना। बौद्धिक दृष्टि से समग्र प्रतिक्रिया देना मुक्तिबोध का मंतव्य था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि लिया बहुत-बहुत और दिया बहुत कम। उन्होंने इन पक्तियों के माध्यम से समाज को बड़ा संदेश दिया है कि ज्ञान-बुद्धि, भाव आदि में जो कुछ लिया है उसे कई गुना समाज को लौटाना होगा वरना ब्रह्मराक्षस की तरह प्रेतयोनि में जाएंगे। देश, समाज और मनुष्य जाति के लिए कुछ करके जाना व्यक्ति का अहम लक्ष्य होना चाहिए। मुक्तिबोध आज भी एक साहित्यिक के साथ उपदेशक, दार्शनिक, तत्ववेत्ता और पौराणिक आख्याता के रूप में तनकर खड़े हैं। ऐसी बेबाकी और खरापन दुर्लभ है, जो कबीर और निराला में मिलता है।




Friday, 15 June 2018

Facebook और निराला !


हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया....

 फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। 

यह बात अटपटी लगेगी। आसानी से गले के नीचे उतरने वाली भी नहीं है। Facebook और महाकवि निराला का कोई संबंध हो सकता है? दोनों का समय बिल्कुल अलग। फ़ेसबुक खुली अभिव्यक्ति का आधुनिक तकनीकी मंच है। वहीं महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी साहित्य में आधुनिक विचार अभिव्यक्ति के पुरोधा और आम आदमी के लिए सहज सुलभ छंदमुक्त साहित्य रचना का मार्ग प्रशस्त किया। वैचारिक दृष्टि से साम्यता खोजने वाले थोड़ी तो समानता दोनों में ढूंढ ही लेंगे। मैं कई बार बोलचाल में उन्हें हिंदी साहित्य को Facebook की तरह आम आदमी के लिए खुला मंच उपलब्ध कराने वाला निर्भीक योद्धा मानता हूं। कहने का आशय इतना भर है कि उन्होंने आज के सोशल मीडिया की तरह साहित्य रचना में वर्ण और मात्रा के गणित की दीवार ढहा दी और मुक्त छंद का उन्मुक्त आकाश दिया।


आम आदमी को आज पब्लिक फोरम पर खुलकर अपनी बात कहने की आजादी है। यही सोशल मीडिया की सबसे बड़ी खूबी है, इसके चलते यह लोकप्रियता के शिखर पर है। समानता खोजने पर मुझे महसूस हुआ की साहित्य लेखन में सामंती दायरों को तोड़ने की जो लड़ाई महाकवि निराला ने अपने समय में लड़ी है वह Facebook मंच देने जैसी कोशिश से कही बड़ी और ऐतिहासिक है। हिंदी साहित्य के इतिहास में छंदोबद्ध रचनाओं के दायरे को तोड़ने का काम महाकवि निराला ने पूरे दमखम के साथ किया। उनके इस योगदान के प्रति हिंदी साहित्य जगत का हर छोटा-बड़ा रचनाकार हमेशा ऋणी रहेगा। कितनी ही नई विधाओं का जन्म इस विचार से हुआ, नई कविता, तमाम छंदमुक्त रचनाएं और हर तरह से लेखन को सामंती दायरों से आजाद कराया।

आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध


Facebook, Twitter जैसे मंच आज अपनी बात कहने के लिए बड़े आसान, सुलभ 24 घंटे उपलब्ध है। बड़ी से बड़ी हस्ती और खेत में काम करने वाला कम पढ़ा लिखा गंवई आदमी भी एक साथ खड़ा नजर आता है। विचार प्रक्रिया में परिमार्जन का अंतर हो सकता है, लेकिन विचार अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली है, वह सभी दायरों को तोड़कर नितांत नूतन, जहां हर छोटा-बड़ा एक ही मंच पर नजर आता है। इसके अच्छे और बुरे परिणामों के बारे में जरूर चर्चा की जा सकती है। इस पर खूब चर्चा होती रही है। मुझे लगता है, होनी भी चाहिए क्योंकि इसमें किसी तरह का कोई फ़िल्टर नहीं है कि अच्छे और बुरे विचारों को अलग किया जा सके। मतलब जनहित और जनविरोधी भावनाओं को समाज में विभेद और गलत बातों को फैलाने से रोकने का कोई बहुत पुख्ता कारगर सिस्टम नहीं बन पाया है। यही वजह है कि इसके दुष्परिणाम व्यापक स्तर पर लोगों को चरित्र हनन और चरित्र हत्या के रूप में देखने को मिलते हैं।


ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में


हमारे पास अभी IT कानून तक इतने मजबूत नहीं है कि इस तरह के कुत्सित प्रयासों को प्रभावी तरीके से रोका जा सके। Facebook पर यूजर्स के व्यक्तिगत डेटा चोरी का आरोप लग चुका है और इससे जुड़े कैंब्रिज एनालिटिका डाटा लीक विवाद के बाद Facebook को 425 पन्नों में 2,000 से ज्यादा सवालों के जवाब देने पड़े हैं। इसमें Facebook ने कबूला है कि वह यूजर के कीबोर्ड और माउस के मूवमेंट पर भी नजर रखता है। यह भी पता लगाने की कोशिश करता है कि फोन की बैटरी कितनी बची है, ऐसा करके वह एक-एक यूजर की पसंद और नापसंद जानने की कोशिश करता है। इस ताक-झांक से प्राइवेसी पॉलिसी सवालों के घेरे में है।


परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध

जहां तक सोशल मीडिया के अन्य प्रभाव की बात है सोशल प्लेटफार्म ने परंपरागत मीडिया की हालत वैसे ही कर दी है जैसे उसके हिस्से का जल नई पीढ़ी की मछली ने चुरा लिया है। या एक तरह से इसके अस्तित्व के लिए चुनौती खड़ी कर दी है। जिस पावर के दम पर परंपरागत मीडिया अपनी पूरी शख्सियत और प्रभाव प्रस्तुत करता था, उसमें जैसे सेंध लगा दी है। सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की भीड़ में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपनी हर छोटी बड़ी बात इस मंच से कह डालते हैं। और पलभर में करोड़ों लोग उन से जुड़ते हैं। बल्कि परंपरागत मीडिया को भी उसे खबर के रूप में उठाने पर मजबूर होना पड़ता है। एक जमाना था जब बड़े मीडिया हाउसेस के गेट पर इन्हीं शख्सियतों को कतार लगानी होती थी कि उनकी बात इस मंच के माध्यम से लोगों तक पहुंचाने का अवसर मिल जाए। बदले हुए हालात का अंदाजा लगा सकते हैं कि किस कदर परंपरागत मीडिया की पावर में सेंध लगाने की कोशिश सोशल मीडिया ने की है।