संकटग्रस्त पत्रकारिता के दौर में बड़ी और पीड़ादायक खबर आई। 80 वर्षों से देश-दुनिया को ध्वनितरंगों के जरिए जोडऩे वाला बीबीसी हिंदी रेडियो 31 जनवरी को खामोश हो गया। मशहूर ब्रॉडकास्ट्र्स के गले आखिरी प्रसारण के वक्त रुंधे हुए और देश के कोने-कोने में बीबीसी हिंदी रेडियो के लाखों चाहने वाले श्रोताओं का मन खिन्न और भारी। हम जिस प्रसारण को सुनते हुए बड़े हुए। हिंदी पत्रकारिता के एकलव्य छात्र की तरह तमाम गुर सीखे। जिस प्रसारण के साथ आवाज का जादू बिखेरने वाले बेहतरीन ब्राडकॉस्टर की तरह बनने का सपना संजोया। प्रसारण की ऐसी समृद्ध परंपरा का आखिर ऐसा अंत क्यों? सोचकर ही सदमा सा लगता है। मन में कितने ही सवाल उमड़-धुमड़ते रहेंगे। इसकी वजहों की आगे भी पड़ताल होती रहेगी, लेकिन बीबीसी का जादू हमेशा स्मृति का एक अभिन्न हिस्सा रहेगा। बीबीसी के ब्रॉडकास्टर हिंदी अखबारों के भी अच्छे संपादक साबित हुए हैं। उन्होंने बड़े पत्रकार और कलाकार के तौर पर भी ख्याति अर्जित की। इनमें ओमकारनाथ श्रीवास्तव, सईद जाफरी, पंकज पचौरी, रेहान फजल, राजेश जोशी, मुधकर उपाध्याय, संजीव श्रीवास्तव, अचला शर्मा, परवेज आलम जैसे अनेक बड़े नाम शामिल हैं। जब भी बीबीसी हिंदी का जिक्र छिड़ेगा उनकी आवाज कानों में गूंजती रहेगी। ऐसी भाषाई प्रस्तुती अंयत्र दुर्लभ है। मजाल है, हिंदी के प्रसारण में अनावश्यक रूप से ऊर्दू या अंग्रेजी शब्द ठूंस दिए जाएं। प्रसारकों द्वारा शब्द चयन की अद्भुत कला जादुई असर छोड़ती और बीबीसी हिंदी को सर्वोत्कृष्ट आसन पर बिठाती रही। मेरा सौभाग्य है कि बीबीसी के साथ शुरू हुई भाषाई यात्रा और समझ ग्रामीण परिवेश में भी भ्रष्ट होने से बची रही। बल्कि अनजाने में ही भाषाई अनुशासन और संस्कार व्यक्तित्व में आता चला गया। खुद के अंतराष्ट्रीय ज्ञान और समझ को बढ़ाने में बीबीसी का योगदान है। विज्ञान से लेकर कला और अर्थव्यवस्था, खेलकूद तक की हर अपडेट मेरे पास होती थी। गांव के स्कूल में जब 12वीं कक्षा में अध्ययनरत था। क्रिकेट मैच में एक खिलाड़ी के बारे में हटकर अपडेट खबर दी, तब शिक्षक ने खबरों संबंधी मेरे ज्ञान की पूरी क्लास में यह कहकर सराहा कि जिसके घर टीवी नहीं उसके पास इस तरह की अपेडट होना बड़ी बात है। उन दिनों कुछ ही घरों में टीवी होता था। मुझे यह सराहना बीबीसी के कारण ही मिली, उन्होंने मुझे सबसे अपेडट रहने वाला छात्र घोषित किया। मेरे भीतर जगा यही अत्मविश्वास मुझे पत्रकारिता की तरफ मोड़ता चाला। पत्रकार बनने की प्रेरणा जगाई। इसके बाद तो बीबीसी सुनने का जैसे जुनून सा छा गया। सुनकर हर एक खबर को लिखने की आदत पड़ गई। अलग-अलग सेग्मेंट की खबरें को नोट करना और सुनकर उनका विश्लेषण करना तभी शुरू हो गया था। अनजाने में पत्रकारिता के सफर पर चला पड़ा। देश-दुनिया की प्रत्येक अपडेट के लिए रेडियो को चिपटाए साथ घूमने की आदत हो गई। रेडियो सुनने की धुन में खाने-पीने तक की सुध न रहती। रेडियो सुनते-सुनते कोशिश ऐसी रंग लाई कि चार-पांच वर्षों में आकाशवाणी के स्थानीय केंद्र में बोलने का काम मिल गया। छोटे शहर में ब्रॉडकास्टर की छोटी-मोटी भूमिका में आना मेरे लिए बड़ी बात थी। बस क्या था जैसे में मेरे अरमानों को पंख मिल गए। ध्वनि तरंगों पर सवार होकर उड़ान भरने लगा। क्षमता से अधिक काम करने की आदत हो गई। गांव के लड़के ने डगमगाते कदमों के साथ जो सफर शुरू किया वह अब तक अनवरत जारी है। प्रसारक से अखबार की दुनिया में जगह बनाने तक की उबड़-खाबड़ यात्रा मेरे लिए किसी करिश्मे से कम नहीं रही। अगर मैं संक्षेप में कहूं तो बीबीसी ने जो मेरे भीतर पत्रकारिता का बीजारोपण किया वह आज अंकुरित होकर पुष्पित-पल्लवित होने की स्थिति में पहुंच गया। बीबीसी सुनने की प्रेरणा को लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा है। अस्सी और नब्बे के दशक में गांवों में सूचना पहुंचाने का जरिया एक मात्र रेडियो ही होता था। तब सूचना क्रांति का इतना बोलबाला नहीं था। रेडियो भी कुछ ही घरों में होता था। उसमें भी खबरों की रुचि रखने वाले एक ही दो लोग होते। जैसी ही बड़ी खबर या समाचार रेडियो पर आती। दिलचस्पी रखने वाले चौक, चौराहे-चौपाल या जहां भी एक-दो लोग जमा होते वहीं पर खबरों का जिक्र छेड़ देते। लोग ध्यान देकर सुनने। वह यह भी बताते थे कि यह खबर विश्वनीय माध्यम बीबीसी ने बताई है। नई और ताजी खबरों पर चर्चा के दौरान उस व्यक्ति की भीड़ में धाक जम जाती थी। हमारे बाल मन में इसी की छाप पड़ गई और होश संभालते ही हम भी बीबीसी सुनने लगे। श्रेष्ठ खबरों और पत्रकारिता से नाता जुड़ता चला गया। बीबीसी में वर्षों तक पत्रों के जरिए जीवंत संपर्क भी रहा। बीबीसी ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए। वे आज भी अभिन्न रूप से जुड़े हैं। उनमें कुछ को जब मैंने बीबीसी हिंदी रेडियो के आखिरी प्रसारण की सूचना तो उन्होंने अपनी बहुत ही भावनात्मक प्रतिक्रिया दी।
(बिल्कुल सही ठाकरे जी, हमें बहुत दुख हुआ, हमारे ज्ञान को दुनिया के सन्दर्भ में विस्तार देने में बीबीसी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज वाइस आफ अमेरिका और रेडियो डोइचे वैले जैसे महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी रेडियो प्रसारण भी बंद हो चुके है। अब की इंटरनेट संचार क्रांति भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाले रेडियो और टेलिविजन प्रसारणों को छिन चुकी है। अब सबके पास अलग-अलग अवसर उपलब्ध है। कोई ऑनलाइन गाने सुन रहा है तो उसी समय कोई किसी दूसरे स्टेशन से समाचार सुन रहा है। कहां गये वो दिन जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम सब एक साथ एक ही रेडियो प्रसारण को सुना करते थे।और पत्रों के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान किया करते थे।) हुलासराम कटरे बालाघाट
हाँ, गोविंद भाई !!!!
थोड़ा बचपन और युवा अवस्था बीबीसी हिंदी के साथ बीती। बहुत ही कड़े मन से स्वीकार करना पड़ रहा है कि बीबीसी हिंदी अब नहीं सुन पाएँगे। सत्येंद्र कुमार सहायक प्राध्यापक सिवनी कॉलेज
- गोविंद ठाकरे