Wednesday, 12 February 2020

80 वर्ष के सुनहरे युग का अंत



संकटग्रस्त पत्रकारिता के दौर में बड़ी और पीड़ादायक खबर आई। 80 वर्षों से देश-दुनिया को ध्वनितरंगों के जरिए जोडऩे वाला बीबीसी हिंदी रेडियो 31 जनवरी को खामोश हो गया। मशहूर ब्रॉडकास्ट्र्स के गले आखिरी प्रसारण के वक्त रुंधे हुए और देश के कोने-कोने में बीबीसी हिंदी रेडियो के लाखों चाहने वाले श्रोताओं का मन खिन्न और भारी। हम जिस प्रसारण को सुनते हुए बड़े हुए। हिंदी पत्रकारिता के एकलव्य छात्र की तरह तमाम गुर सीखे। जिस प्रसारण के साथ आवाज का जादू बिखेरने वाले बेहतरीन ब्राडकॉस्टर की तरह बनने का सपना संजोया। प्रसारण की ऐसी समृद्ध परंपरा का आखिर ऐसा अंत क्यों? सोचकर ही सदमा सा लगता है। मन में कितने ही सवाल उमड़-धुमड़ते रहेंगे। इसकी वजहों की आगे भी पड़ताल होती रहेगी, लेकिन बीबीसी का जादू हमेशा स्मृति का एक अभिन्न हिस्सा रहेगा। बीबीसी के ब्रॉडकास्टर हिंदी अखबारों के भी अच्छे संपादक साबित हुए हैं। उन्होंने बड़े पत्रकार और कलाकार के तौर पर भी ख्याति अर्जित की। इनमें ओमकारनाथ श्रीवास्तव, सईद जाफरी, पंकज पचौरी, रेहान फजल, राजेश जोशी, मुधकर उपाध्याय, संजीव श्रीवास्तव, अचला शर्मा, परवेज आलम जैसे अनेक बड़े नाम शामिल हैं। जब भी बीबीसी हिंदी का जिक्र छिड़ेगा उनकी आवाज कानों में गूंजती रहेगी। ऐसी भाषाई प्रस्तुती अंयत्र दुर्लभ है। मजाल है, हिंदी के प्रसारण में अनावश्यक रूप से ऊर्दू या अंग्रेजी शब्द ठूंस दिए जाएं। प्रसारकों द्वारा शब्द चयन की अद्भुत कला जादुई असर छोड़ती और बीबीसी हिंदी को सर्वोत्कृष्ट आसन पर बिठाती रही। मेरा सौभाग्य है कि बीबीसी के साथ शुरू हुई भाषाई यात्रा और समझ ग्रामीण परिवेश में भी भ्रष्ट होने से बची रही। बल्कि अनजाने में ही भाषाई अनुशासन और संस्कार व्यक्तित्व में आता चला गया। खुद के अंतराष्ट्रीय ज्ञान और समझ को बढ़ाने में बीबीसी का योगदान है। विज्ञान से लेकर कला और अर्थव्यवस्था, खेलकूद तक की हर अपडेट मेरे पास होती थी। गांव के स्कूल में जब 12वीं कक्षा में अध्ययनरत था। क्रिकेट मैच में एक खिलाड़ी के बारे में हटकर अपडेट खबर दी, तब शिक्षक ने खबरों संबंधी मेरे ज्ञान की पूरी क्लास में यह कहकर सराहा कि जिसके घर टीवी नहीं उसके पास इस तरह की अपेडट होना बड़ी बात है। उन दिनों कुछ ही घरों में टीवी होता था। मुझे यह सराहना बीबीसी के कारण ही मिली, उन्होंने मुझे सबसे अपेडट रहने वाला छात्र घोषित किया। मेरे भीतर जगा यही अत्मविश्वास मुझे पत्रकारिता की तरफ मोड़ता चाला। पत्रकार बनने की प्रेरणा जगाई। इसके बाद तो बीबीसी सुनने का जैसे जुनून सा छा गया। सुनकर हर एक खबर को लिखने की आदत पड़ गई। अलग-अलग सेग्मेंट की खबरें को नोट करना और सुनकर उनका विश्लेषण करना तभी शुरू हो गया था। अनजाने में पत्रकारिता के सफर पर चला पड़ा। देश-दुनिया की प्रत्येक अपडेट के लिए रेडियो को चिपटाए साथ घूमने की आदत हो गई। रेडियो सुनने की धुन में खाने-पीने तक की सुध न रहती। रेडियो सुनते-सुनते कोशिश ऐसी रंग लाई कि चार-पांच वर्षों में आकाशवाणी के स्थानीय केंद्र में बोलने का काम मिल गया। छोटे शहर में ब्रॉडकास्टर की छोटी-मोटी भूमिका में आना मेरे लिए बड़ी बात थी। बस क्या था जैसे में मेरे अरमानों को पंख मिल गए। ध्वनि तरंगों पर सवार होकर उड़ान भरने लगा। क्षमता से अधिक काम करने की आदत हो गई। गांव के लड़के ने डगमगाते कदमों के साथ जो सफर शुरू किया वह अब तक अनवरत जारी है। प्रसारक से अखबार की दुनिया में जगह बनाने तक की उबड़-खाबड़ यात्रा मेरे लिए किसी करिश्मे से कम नहीं रही। अगर मैं संक्षेप में कहूं तो बीबीसी ने जो मेरे भीतर पत्रकारिता का बीजारोपण किया वह आज अंकुरित होकर पुष्पित-पल्लवित होने की स्थिति में पहुंच गया। बीबीसी सुनने की प्रेरणा को लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा है। अस्सी और नब्बे के दशक में गांवों में सूचना पहुंचाने का जरिया एक मात्र रेडियो ही होता था। तब सूचना क्रांति का इतना बोलबाला नहीं था। रेडियो भी कुछ ही घरों में होता था। उसमें भी खबरों की रुचि रखने वाले एक ही दो लोग होते। जैसी ही बड़ी खबर या समाचार रेडियो पर आती। दिलचस्पी रखने वाले चौक, चौराहे-चौपाल या जहां भी एक-दो लोग जमा होते वहीं पर खबरों का जिक्र छेड़ देते। लोग ध्यान देकर सुनने। वह यह भी बताते थे कि यह खबर विश्वनीय माध्यम बीबीसी ने बताई है। नई और ताजी खबरों पर चर्चा के दौरान उस व्यक्ति की भीड़ में धाक जम जाती थी। हमारे बाल मन में इसी की छाप पड़ गई और होश संभालते ही हम भी बीबीसी सुनने लगे। श्रेष्ठ खबरों और पत्रकारिता से नाता जुड़ता चला गया। बीबीसी में वर्षों तक पत्रों के जरिए जीवंत संपर्क भी रहा। बीबीसी ने मुझे कई अच्छे मित्र दिए। वे आज भी अभिन्न रूप से जुड़े हैं। उनमें कुछ को जब मैंने बीबीसी हिंदी रेडियो के आखिरी प्रसारण की सूचना तो उन्होंने अपनी बहुत ही भावनात्मक प्रतिक्रिया दी।
(बिल्कुल सही ठाकरे जी, हमें बहुत दुख हुआ, हमारे ज्ञान को दुनिया के सन्दर्भ में विस्तार देने में बीबीसी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। आज वाइस आफ अमेरिका और रेडियो डोइचे वैले जैसे महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी रेडियो प्रसारण भी बंद हो चुके है। अब की इंटरनेट संचार क्रांति भारत को एकता के सूत्र में बांधने वाले रेडियो और टेलिविजन प्रसारणों को छिन चुकी है। अब सबके पास अलग-अलग अवसर उपलब्ध है। कोई ऑनलाइन गाने सुन रहा है तो उसी समय कोई किसी दूसरे स्टेशन से समाचार सुन रहा है। कहां गये वो दिन जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम सब एक साथ एक ही रेडियो प्रसारण को सुना करते थे।और पत्रों के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान किया करते थे।) हुलासराम कटरे बालाघाट
हाँ,  गोविंद भाई  !!!!
थोड़ा बचपन और युवा अवस्था बीबीसी हिंदी के साथ बीती। बहुत ही कड़े मन से स्वीकार करना पड़ रहा है कि बीबीसी हिंदी अब नहीं सुन पाएँगे। सत्येंद्र कुमार सहायक प्राध्यापक सिवनी कॉलेज



                                                                                                                      - गोविंद ठाकरे

Friday, 7 February 2020

ऑब्जर्वर थ्योरी

विद्वान आमतौर पर पत्रकारिता को कला संकाय मानते हैं। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता स्वीकार करते हैं। यहां पत्रकारिता के वैज्ञानिक पहलू पर विस्तार से विचार करेंगे। पहले तो समझ लें कि विज्ञान का मूल मंतव्य क्या है? आखिर में किसे विज्ञान मानें और किसे कला संकाय कहें। विशेषज्ञों ने विज्ञान और कला के भेद को बड़ी स्पष्टता रेखांकित किया है, लेकिन विज्ञान और कला के बारे में आम जीवन में उतनी सहज समझ नहीं बन पाती। यह दिलचस्प है कि कोई विचार या अवधारणा तब तक वैज्ञानिक नहीं मानी जाती जब तक कि उसे किसी गणितीय सूत्र के माध्यम से सिद्ध न किया गया हो। एक बात तय है कि गणितीय फार्मूले के सांचे में ढाले बिना कोई वैज्ञानिक विचार साइंस की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता। इन्हें वैज्ञानिक अवधारणाओं तक सीमित किया जाता हैं। इसका आशय है कि कोई विषय पूरी तरह वैज्ञानिक तभी होता है जब तक उसका कोई गणितीय पहलू सामने न आ जाए। स्पष्ट है कि इस परिभाषा के दायरे में पत्रकारिता नहीं आती। विज्ञान इसलिए नहीं है, क्योंकि इसकी थ्योरी गणितीय फार्मूले में अब तक लाई ही नहीं जा सकी है। लेकिन इसकी वैज्ञानिकता पर संदेह नहीं है। पत्रकारिता की अवधारणा के स्तर पर वैज्ञानिकता निर्विवादित है। जनसंचार और पत्रकारिता में कई उल्लेखनीय सिद्धांत पहले खोजे जा चुके हैं, लेकिन यहां पत्रकारिता की एक नई वैज्ञानिक अवधारणा की संभावनाओं पर विचार करते हैं। ऐसा कोई थ्योरी शामिल की जा सकती है, जो पूरी तरह साइंस न हो फिर भी विज्ञान की तरह काफी हद तक परिणाम दे। थ्योरी पर विचार करने से पूर्व भौतिकी दुनिया के चमत्कार क्वांटम थ्योरी की बात करते हैं। विज्ञान के अध्येता जानते हैं, क्वांटम फिजिक्स कितनी जटिल और अबूझ पहेली है। कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल नेटवर्क इसी फिजिक्स की दुनिया के चमत्कार हैं। दरअसल क्वाटंम थ्योरी कहती है कि अत्यंत सुक्ष्म कणों की दुनिया पार्टिकल लेवल पर हर चीज एक साथ वेब और पार्टिकल दोनों नेचर में एक साथ एक्जिस्ट करती है। यानी एक साथ वेब और पार्टिकल हो सकती है। यंग के डबल स्लिट प्रयोग में सिद्ध किया जा चुका है कि इलेक्ट्रान का डिवेल नेचर पाया जाता है। यानी वह एक ही समय में पार्टिकल और वेब की तरह व्यवहार करता है। पत्रकारिता में इस थ्योरी का क्या लेना देना? डबल स्लिट प्रयोग का चमत्कार ये है कि जब पार्टिकल को कोई नहीं देख रहा होता है तो वह वेब नेचर प्रदर्शित करता है, वहीं जब उसे कोई देख (आब्र्जव) रहा होता है तो शद्द पार्टिकल की तरह व्यवहार करता है। यहां आब्र्जवर की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आब्र्जवर वह जादूगर है जो पूरा स्वप्न लोक हकीकत में बदल देता है। किसी के देखने मात्र का यह असर होता है कि वेब (वर्चुल) से पार्टिकल(रियल) में तब्दील हो जाता है। यह जटिल बात असानी से गले नहीं उतरती। चलिए अब इसे और आसान बनाने की कोशिश करते हैं। क्वांटम थ्योरी को आम जीवन में कुछ इस तरह महसूस किया जा सकता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के सामने उसका व्यहार कुछ होता है और व्यक्तिगत व्यवहार कुछ और ही। शायद अब भी इसे समझना मुश्किल है। इसे और आसान बनाने की कोशिश करते हैं। जब कोई नितांत व्यक्तिगत होता है यानी कोई उसे देख नहीं रहा होता है तब उसका व्यहार कैसा होता है? और जब उसे यह पता लग जाता है कि देख रहा है तो उसका व्यवहार तत्काल बदल जाता है। यानी आप अनौपचारिक से औपचारिक या वर्चुवल से रियल हो जाते हैं। पहले ही कहा जा चुका कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह दूसरे की नजर में पद प्रतिष्ठा और पहचान के आधार पर दिखना चाहता है। यथायोग्य वेशभूषा, भाषा-शैली और चाल-ढाल आदि का प्रदर्शन करता है। लेकिन जब वह नितांत निजी क्षणों को जी रहा होता है तो उसका बिल्कुल उलट व्यवहार होता है। गायक भले न हो फिर भी अपनी रौव(तरंग) में बहता हुआ बाथरूम सिंगर बन जाता है। एकांत के क्षणों में अपनी पहचान को एक तरफ रखकर तरंगित यानी वेब की तरह झूमने गाने और तनाव भुलाने का उपक्रम करता है। कई बार तो सेंसलेस होने में गुरेज नहीं होता। इसे हम जिदंगी का डिवेल नेचर कह सकते हैं। यानी किसी सुक्ष्म दुनिया की तरह कभी पार्टिकल तो कभी वेब प्रकृति को धारण कर लेना। सवाल है कि इसमें वेब और पार्टिकल क्या है? तो जाहिर है जब हम पर कोई नजर नहीं रख रहा होता तो एक तरंग की रौ में बहते चलते हैं। जैसे कि बाथरूम की मस्ती, बाथरूम सिंगर या नितांत निजी क्षणों की मस्ती आनंद की स्थिति। इसे ही हम व्यक्ति का वेब नेचर मान सकते हैं। लगता है जैसे हम किसी वर्चुल दुनिया का हिस्सा हैं। एक  उमंग वाली तरंग में बहते चलते हैं। लेकिन जैसे ही आप आफिस पहुंचते हैं अपनी वह पहचान के साथ औपचारिक स्थिति में शूट टाई, स्कूल ड्रेस, बोलने-चालने का लहजा बिल्कुल ही बदल जाता। अपनी स्थानीय बोली को भूलकर औपचारिक भाषा यानी हिंदी या अंग्रेजी में संवाद करने लगता है। यानी आप पूरी तरह रियल दुनिया का हिस्सा हो जाते हैं। अर्थात व्यक्ति का व्यवहार भी क्वांटम फिजिक्स की तरह आब्र्जवर पर बहुत हद तक निर्भर या प्रभावित होता है। आब्र्जवर ऐसी कड़ी है जो हमें वर्चुव से रियल स्थिति में लाने के लिए जिम्मेदार है। अब सवाल उठता है कि इसे पत्रकारिता में कैसे उपयोग किया जा सकता है। यह जनना भी बहुत दिलचस्प होगा कि दरअसल एक पत्रकार आब्र्जवर की भूमिका में होता है, यह तो सभी जानते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है। जैसे कि जब तक किसी ऑफिस या फाइल में कोई भ्रष्टाचार चल रहा है तब वह खबर की दुनिया में वह एक वर्चुअल स्थिति है, लेकिन जैसे पत्रकार नाम के आब्र्जवर के संज्ञान में आता है वह वर्चुअल से रियल में होता है। वह एक भ्रष्टाचार की घटना के रूप में दुनिया के सामने खबर बनकर आ जाती है। इस प्रक्रिया में आब्र्जवर थ्योरी बेहद मजबूती से उभरती है। पत्रकारिता में ऑब्जर्वेशन अहम है। पत्रकार जितना अच्छा ऑब्जर्वर होगा उतना ही उसकी पत्रकारिता सशक्त तरीके से लोगों के समक्ष प्रस्तुत होगी। ऑब्जर्वेशन दरअसल तथ्यों की खोज की दृष्टि है। यह जितनी पैनी होगी दृष्टि उतनी अच्छी सूचनाओं को पकड़ लेगी और हिला देने वाली खबर लोगों के सामने होगी। जैसे विकीलिक्स के पत्रकारों द्वारा धमकाकेदार खुलासे, जिसमें दुनिया की बड़ी हस्तियों के भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ। स्टिंग ऑपरेशन में आब्र्जवर (पत्रकार) की पहचान को छिपाकर बड़े कारनामे उजागर किए जाते रहे हैं। तहलका स्टिंग ऑपरेशन, ऑपरेशन दुर्योधन आदि चिर्चित हुए हैं।   
मूल सूचना खोज बड़ी चुनौती
किसी घटनाक्रम में मूल सूचना का चयन सबसे कठिन प्रक्रिया है। मूल सूचना की पहचान का पहला चरण रिपोर्टिंग है। रिपोर्टर के लिए मूल सूचना की पहचान खोजबीन करने जैसा काम है। यह वैसा ही है जैसे कूड़े में से सुई ढूंढ़ निकालना। इसका एक तरीका है सुई की चमक को अगर रिपोर्टर की आंख पहचान ले तो समझो काम आसान हो गया। इसे ही हम विजन, दृष्टि या नजरिया कहते हैं। किसी पत्रकार के पास यह दृष्टि जितनी पैनी होगी, वह उतना ही बड़ा और तेज पत्रकार माना जाएगा। यह रोजमर्रा के कामकाज में पत्रकार को आए दिन फेस करना होता है।
मूल सूचना की पहचान कैसे की जाए है बड़ी चुनौती है। इसके कुछ विशेषताएं तय की जा सकती हैं
-जिस सूचना में लोगों की सबसे ज्यादा रूचि हो
-सूचना स्थानीय स्तर पर कितना जुड़ाव या लगाव पैदा कर सकती
-जो मीडियम के हिसाब से चर्चा में आने लायक हो जैसे प्रिंट या इलेक्ट्रानिक में
इनके अलावा भी कई ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके माध्यम से आसान तरीके से मूल सूचना की पहचान की जा सकती है।
- सर्वत्र बिखरी सूचनाओं के बीच मूल सूचना की खोज का अगला कदम है। जहां उसे फेस देने का काम होता है। यह समाचार गठन की शीर्ष प्रक्रिया भी मानी जाती है।

                                                                                                       - गोविंद ठाकरे